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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली दोषाणामिति, तदपि न किञ्चित्, वातादिदोषदुष्टानां धातूनां रोगान्तरजननोपलम्भात । सर्वस्य सर्ववित्त्वं च दोषाणां शक्तिनियमादेव पराहतम् । न च ज्ञानस्यार्थव्यभिचारे सर्वत्रानाश्वासः, यत्नेनान्विष्यमाणानां बाधकारणदोषाणामनुपलम्भादभावसिद्धौ तद्वयाप्तस्य विपर्ययस्याभावावगमादेव विश्वासोपपत्तेः। विपर्ययानम्युपगमे च द्विचन्द्रज्ञानस्य का गतिः ? दोषव्यतिभिन्नानां चक्षरश्म्यवयवानां च पृथङ निर्गत्य पतितानां चन्द्रमसि जनितस्य ज्ञानद्वयस्यायं द्वित्वावभास इति चेन्न, ज्ञानधर्मस्य चक्षुषा ग्रहणाभावात्। ज्ञानधर्मो ज्ञेयगतत्वेन गृह्यमाणो ज्ञेयग्राहकेणवेन्द्रियेण गृह्यत इत्यभ्युपगमे तु भ्रान्तिः समथिता स्यात्, अन्यधर्मस्यान्यत्र ग्रहणात् । इत्यलमतिप्रकोपितैः श्रोत्रियद्विजन्मभिरित्युपरम्यते।। ये तु शुक्तिकायां रजतप्रतीतावलौकिकं रजतं वस्तुभूतमेव प्रतीयत इति हो, वे भी वस्तुतः 'विपर्यय को स्वीकार ही करते हैं, क्योंकि जहाँ जो नहीं है वहाँ उसके व्यवहार की प्रवृत्ति ही वस्तुतः 'विपर्यय' है। दोष केवल शक्ति का व्याघात ही कर सकता है' इस कथन में भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि वायु प्रभृति दोषों से युक्त धातुओं से रोग नाम की दूसरी वस्तु की उत्पत्ति होती है । शक्ति के नियमन से ही सभी जनों में सर्वज्ञता को आपत्ति खण्डित हो जाती है। किसी स्थान में ज्ञान का अर्थव्य भिचारी होना ज्ञान में सभी व्यवहारों के विश्वास को डिगा नहीं सकता, क्योंकि यन पूर्वक अन्वेषण करने पर बाध के कारणीभूत दोष की अनुपलब्धि से दोष के अभाव का निश्चय हो जाएगा। फिर दोष के अभाव के साथ अवश्य रहनेवाले विपर्ययाभाव की सिद्धि ( सुलभ ) होगी। इस अभाव-निश्चय के द्वारा ही ( यथार्थ ) ज्ञान में विश्वास की उपपत्ति होगी। विपर्यय को यदि न मानें तो चन्द्रों के ज्ञान की क्या गति होगी ? (प्र०) दोष से युक्त चक्षु की रश्मियों के अवयव अलग २ निकल कर चन्द्रमा के ऊपर जाते हैं, अतः एक ही चन्द्र के दो ज्ञान उत्पन्न होते हैं। दोनों ज्ञानों में रहनेवाले द्वित्व का ही चन्द्रमा में भान होता है। (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि ज्ञान में रहने वाले धर्म का चक्षु से भान होना सम्भव नहीं है। यदि यह मान भी लें कि (प्र.) ज्ञान का धर्म जब ज्ञेय में गृहीत होता है, तब ज्ञेय का ज्ञान जिस इन्द्रिय से होता है उसीसे ज्ञानगत धर्म भी गृहीत होता है । (उ०) तो फिर इससे भी विपर्यय या भ्रान्ति ही समर्थित होती है, क्योंकि ( आप के कथनानुसार भी ) अन्य ( ज्ञान ) का धर्म द्वित्व अन्यत्र (विषय चन्द्रमा में ) ही गृहीत होता है । अत्यन्त क्रुद्ध श्रोत्रिय ब्राह्मणों को इससे अधिक कहना व्यर्थ समझकर मैं इससे विरत होता हूँ। जो कोई इस रीति से विपर्यय का खण्डन करते हैं कि ( शुक्ति में ) वस्तुतः For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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