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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विपर्पय न्यायकन्दली व्यवहारस्यायं प्रतिषेध इति चेन्न, अभेदाग्रहणादतद्वयवहारप्रवृत्तेरपि सम्भवात् । अस्ति च शुक्तिकादेशे रजतार्थिनः प्रवृत्तिः, अस्ति च सामानाधिकरण्यप्रत्ययो रजतमेतदिति, अस्ति च बाधकप्रत्यय इदन्ताधिकरणस्य रजतात्मतानिषेधपरः । तेनावगच्छामः शुक्तिसंयुक्तेनेन्द्रियेण दोषसहकारिणा रजतसंस्कारसचिवेन सादृश्यमनुरुन्धता शुक्तिकाविषयो रजताध्यवसायः कृतः । यच्चेदमुक्तं शुक्तिकालम्बनत्वमनुभवविरुद्धमिति, तदसारम् । इदन्तया नियतदेशाधिकरणस्य चाकचिक्यविशिष्टस्य शुक्तिकाशकलस्यापि प्रतिभासनात । हानादिव्यवहारयोग्यता चालम्बनार्थः, स चात्रैव सम्भवति । योऽपि भेदाग्रहाच्छुक्तौ रजतव्यवहारप्रवृत्तिमिच्छति, तेनापि विपर्ययोऽङ्गीकृतः, अस्मिस्तदिति व्यवहारप्रवृत्तेरेव विपर्ययत्वात् । यच्च शक्तिव्याघातहेतुत्वं के बाद नियम पूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति की भी उपपत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि प्रकृत में कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अभेद का ज्ञान भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि भेद के ज्ञान के कारण अभेद के अग्रहण की भी वहाँ सम्भावना है । एवं यहाँ प्रवृत्ति के बाद जो 'नेदं रजतम्' इत्यादि आकार की बाधक प्रतीति होती है, वह भी नहीं बन सकेगी, क्योंकि शुक्तिका और रजत इन दोनों के भेद ज्ञात ही नहीं हैं, एवं दोनों का अभेद भी गृहीत नहीं है, फिर किससे उक्त प्रतिषेध को उपपत्ति होगी ? (प्र०) शुक्तिका और रजत इन दोनों के भेद के अज्ञान से शुक्तिका में रजतव्यवहार की जो सम्भावना होती है, उसी का निषेध 'नेदं रजतम्' इत्यादि से होता है। ( इस प्रकार से उपपत्ति ) नहीं की जा सकती, क्योंकि उक्त अभेद के अग्रहण मात्र से तो रजत से भिन्न ( घटादि) व्यवहार भी हो सकता है। किन्तु शुक्तिका के प्रदेश में ही रजत की इच्छा करनेवालों की प्रवृत्ति होती है, एवं अभेद की यह प्रतीति होती है कि यह रजत है। एवं इदन्त्य के आश्रय शुक्तिका में रजतस्वरूपत्व का निषेध करनेवाला (नेद रजतम्) यह बाधक प्रत्यय भी है। इससे यह निश्चित रूप से समझते है कि शुक्ति का से संयुक्त इन्द्रिय ही शुक्ति का में रजत विषयक निश्चय को उत्पन्न करती है। यह अवश्य है कि इन्द्रिय को इस विशेष कार्य के लिए दोष रूप सहकारी की, रजतसंस्कार से सहायता की और सादृश्य के अनुरोध की आवश्यकता होती है। यह जो कहा जाता है कि शुक्तिका रजतज्ञान का विषय हो, यह अनुभव से बाहर की बात है उसमें भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि इदन्त्व का नियत अधिकरण एवं चाकचिक्य से युक्त शुक्तिका खण्ड, ये दोनों भी तो उस प्रतीति में विषय हैं ही। जिस प्रतीति से जिसमें ग्रहण या त्याग की योग्यता आवे वही उस प्रतीति का विषय है यह योग्यता ( इस 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में भासित होनेवाले रजत में भी) है ही। जिनकी यह अभिलाषा है कि भेद के अज्ञान से ही शुक्ति में रजत का व्यवहार और प्रवृत्ति दोनों की उपपत्ति For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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