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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४०० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम स्वापरत्व प्रशस्तपादभाष्यम् परत्वगुणबुद्धेरुत्पद्यमानतेत्येकः कालः। ततोऽपेक्षाबुद्धे विनाशो गुणबुद्धेश्चोत्पत्तिः, ततोऽपेक्षाबुद्धिविनाशाद् गुणस्य विनश्यत्ता, गुणज्ञानबुद्धि उत्पन्न होती है, उसी समय अपेक्षाबुद्धि को विनष्ट करनेवाले कारणसमूह एकत्र हो जाते हैं, एवं ( परत्वादि में रहनेवाले उक्त ) सामान्य, एवं सामान्य के ज्ञान और परत्वादि गुणों के साथ उक्त सामान्य का सम्बन्ध इन सबों से परत्वादि गुणविषयक बुदि। के उत्पादक कारणसमूह भी एकत्र हो जाते हैं। ये सभी कार्य एक समय में होते हैं। उसके बाद ( एक ही समय ) अपेक्षाबुद्धि का विनाश और (परत्वादि) गुणविषयक बुद्धि की उत्पत्ति होती है, इसके बाद अपेक्षाबुद्धि के विनाश से परत्वादि गुणों के विनाशक कारणसमूह का एकत्र होना, परत्वादि गुण, उसके ज्ञान, एवं द्रव्य के साथ परत्वादि न्यायकन्दली कृतकस्यावश्यं विनाशः, स च निर्हेतुको न भवतीति परत्वापरत्वयोविनाशहेतुमाह-विनाशस्त्विति। परत्वापरत्वयोविनाशोऽपेक्षाबुद्धिविनाशात्, संयोगविनाशात्, द्रव्यविनाशात्, द्रव्यापेक्षाबुद्धयोविनाशात्, द्रव्यसंयोगयोविनाशात्, संयोगापेक्षाबुद्धधोविनाशात्. अपेक्षाबुद्धिसंयोगद्रव्याणां विनाशादिति सप्तविधो विनाशनमः ।। (१) अपेक्षाबदिधविनाशात तावद्विनाशः कथ्यते । उत्पन्ने परत्वे यस्मिन्नेव काले परत्वसामान्ये बुद्धिरुत्पन्ना भवति । तत इति सप्तम्यर्थे सार्व जिसकी उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी अवश्य ही होता है। एवं विनाश भी बिना कारणों के नहीं होता। अतः (परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति के निरूपण के बाद ) परत्व और अपरत्व के विनाश के हेतुओं का निरूपण 'विनाशस्तु' इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है। विनाश इन सात प्रकार के विनाशक्रमों में से ही किसी से होता है-(परत्व और अपरत्व का विनाश (१) अपेआ बुद्धि के नाश से, (२) संयोग के विनाश से, (३) द्रव्य के विनाश से, (४) द्रव्य और अपेक्षाबुद्धि दोनों के विनाश से, (५) द्रव्य और संयोग इन दोनों के विनाश से (६) संयोग और अपेक्षाबुद्धि इन दोनों के विनाश से, एवं (७) अपेक्षाबुद्धि, संयोग, और द्रव्य, इन तीनों के विनाश से । ___ इनमें क्रमप्राप्त सबसे पहिले (१) अपेक्षाबुद्धि के विनाश से होनेवाले परत्व और अपरत्व के विनाश का क्रम 'अपेक्षाबुद्धिविनाशात्तात्' इत्यादि सन्दर्भ से उपपादित हुआ है । 'ततः' इस पद में सप्तमी विभक्ति के अर्थ में तसिल्' प्रत्यय है। इसी समय For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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