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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३७८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग प्रशस्तपादभाष्यम् - यदि कारणविभागानन्तरं कार्यविभागोत्पत्तिः, कारणसंयोगानन्तरं कार्यसंयोगोत्पत्तिः । नन्वेवमवयवावयविनोयुतसिद्धिदोषप्रसङ्ग इति । न, युतसिद्ध्यपरिज्ञानात् । सा पुनईयो (प्र० ) अगर कारण विभाग की उत्पत्ति के बाद कार्य विभाग की उत्पत्ति होती है, एवं कारण संयोग के बाद कार्य संयोग की उत्पत्ति होती है, तो फिर अवयव और अवयवी के युतसिद्धि की आपत्ति होगी ? ( उ०) ( यह आपत्ति ) नहीं है, युतसिद्धि को न समझने के कारण ही ( आपने उक्त आपत्ति दी है ) न्यायकन्दली कारणस्य हस्तस्याकारणानामाकाशादिदेशानां संयोगात् कर्मजाद् हस्तकार्यस्य शरीरस्य निष्क्रियस्याकार्याणामाकाशादिदेशानां संयोगानारभन्ते न हस्तनिया, तस्याः स्वाश्रयस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुत्वात् । इतिशब्दः प्रक्रमसमाप्तो। ___ अत्र चोदयति-यदीति । कारणस्य हस्तस्य विभागानन्तरं यदि कार्यस्य शरीरस्य विभागस्तथा कारणस्य संयोगानन्तरं कार्यस्य संयोगो न तत्समकालम् । नन्वेवं सत्यवयवावयविनोर्यतसिद्धिः, पृथसिद्धिः परस्परस्वातन्त्र्यं स्यात् । एतदुक्तं भवति । यदि हस्ताश्रितं शरीरं तदा हस्ते गच्छति तदपि सहैव गच्छेत्, तथा सति च संयोगविभागक्रमो न स्यात, क्रमेण चेदनयोः संयोगविभागौ न तदा हस्तगमने शरीरस्य गमनमिति तस्य स्वातन्त्र्यप्रसक्तिः । ग्रन्थ से किया जाता है। (तत् ) 'तस्मात्' अर्थात् विभागजविभाग के बाद, शरीर के ( समवायि ) कारणीभूत सक्रिय हाथ का आकाशादि देशों के साथ ( कर्मज) संयोग से ही हाथ के कार्य शरीर का ( हाथ के ) अकार्य आकाशादि देशों के साथ संयोग उत्पन्न होता है, क्रिया से नहीं। क्योंकि क्रिया अपने आश्रय का किसी दूसरे के साथ संयोग का ही कारण हो सकती है। यहां भी 'इति' शब्द प्रसङ्ग की समाप्ति का ही बोधक है। 'यदि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा फिर से प्रश्न करते हैं कि अगर 'कारण' अर्थात् हाथ के विभाग के बाद 'कार्य' का अर्थात् शरीर का विभाग मानें, एवं कारण ( हाथ ) के संयोग के बाद कार्य (शरीर) का संयोग माने (अर्थात् एक ही समय कार्य और कारण के दूसरे देशों के साथ संयोग या विभाग न मानें क्रमशः हो मान) तो फिर अवयव और अवयवी इन दोनों की युतसिद्धि अर्थात् अलग अलग सिद्धियाँ माननी होंगी, फलतः दोनों को स्वतन्त्रता की आपत्ति होगी। अभिप्राय यह है कि अगर शरीर हाथ में आश्रित है, तो फिर हाथ के चलने पर शरीर भी उसके साथ ही चले, किन्तु तब संयोग और विभाग का कथित क्रम ठीक नहीं होगा। अर्थात् इन में अगर क्रमशः संयोग और विभाग हो, तो फिर हाथ के चलने से शरीर का For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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