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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ३७७ न्यायकन्दली ज्ञानप्रसञ्जितस्य साक्षाद्विरोधिप्रतिपादनमेव वियोजनमिति चेद्रजताभावे प्रतिपादिते रजतज्ञानस्य का क्षतिरभूत्? न ह्यस्य रजतस्थितिकरणे व्यापारः, अपि त्वस्यप्रकाशने, तच्चानेन जायमानेन कृतमिति पर्यवसितमिदं कि बाध्यते ? रजताभावप्रतीतौ पूर्वोपजातस्य रजतज्ञानस्य अयथार्थतास्वरूपं प्रतीयते इत्येषा क्षतिरभूत् । नन्वेवं फलापहार एव बाधः, अयथार्थतावगमे सति ज्ञानस्य व्यवहारानङ्गत्वात् । मैवम् । फलापहारस्य विषयापहारनान्तरीयकत्वात् । न तावज ज्ञानस्य सर्वत्र फलनिष्ठला, तस्य पुरुषेच्छाधीनस्यानुपजननेऽप्युपेक्षासंवित्तः पर्यवसानात् । यत्रापि फलाथिता, तत्रापि फलस्य विषयप्रतिबद्धत्वाद्विषयस्य ज्ञानप्रतिबद्धत्वाद्विषयापहार एव ज्ञानस्य बाधो न फलापहारः, तस्य विषयापहारनान्तरीयकत्वादिति कृतं ग्रन्थविस्तरेण संग्रहटीकायाम् । विभागजविभागानन्तरभावित्वात् पूर्व प्रतिज्ञातं चिरोत्पन्नस्य च संयोगजसंयोगं प्रतिपादयति-तदनन्तरमिति । तस्माद्विभागजविभागादनन्तरं शरीरप्रतिभासित विषय अप्रतिभासित नहीं हो सकते । (प्र०) वस्तुओं के स्वभाव के कारण (शुक्तिका स्थल में ) अविद्य मान रजत भी शुक्तिका के अधिकरण में ( इदं रजतम् ) इस ज्ञान के द्वारा विद्यमान के समान दिखाई देता है। अगर ज्ञान से उत्थापित रजत के साक्षात् विरोध के प्रतिपादन को ही उक्त 'विरोध' कहें तो फिर शुक्तिका के अधिकरण में रजत का अभाव प्रतिपादित होने पर भी उक्त ( भ्रमात्मक ) रजतज्ञान की क्या क्षति हुई ? इस ज्ञान का इतना हो काम है कि वह रजत को प्रकाशित करे, रजत की स्थिति का ज्ञान उसका काम नहीं है। रजत के प्रकाशन का अपना काम तो वह उत्पन्न होते ही कर दिया है, तो फिर उस ज्ञान से बाध किसका होता है ? (उ०) रजत के अभाव की प्रतीति होने पर पहिले शक्तिका के अधिकरण में रजत के ) ज्ञान में जो अयथार्थत्व की प्रतीति होती है, बाधक ज्ञान से बाध्यज्ञान की यही क्षति है। (प्र०) इस प्रकार तो 'फल' का अपहरण ही बाध है, क्योंकि अयथार्थता का ज्ञान होने पर, वह ज्ञान फिर वह व्यवहार का अङ्ग नहीं रह जाता। (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योकि विषयापहरण के विना फल का अपहरण हो ही नहीं सकता। सभी जगह ज्ञान 'फलनिष्ठ' अर्थात् फल का उत्पादक नहीं होता, क्योंकि पुरुष की इच्छा के अनुसार फल की उत्पत्ति न होने पर वह ( ज्ञान ) उपेक्षाज्ञान में परिणत हो जाता है। जहाँ पर ज्ञान फल का उत्पादक होता भी है, वहाँ भी फल का सम्बन्ध विषय के साथ ही रहता है और विषय का सम्बन्ध ज्ञान के साथ रहता है, अतः विषय का अपहरण ही बाध है, फल का अपहरण नहीं, क्योंकि फल का अपहरण विषय के अपहरण के साथ नियमित है। ( इससे अधिक ) संग्रह रूप टीका ग्रन्थ में विस्तार करना व्यर्थ है। विभागजविभाग के बाद उत्पन्न होने के कारण, एवं पूर्व में प्रतिज्ञात होने के कारण चिरकाल से उत्पन्न द्रव्यों के संयोगजसं योग का प्रतिपादन 'तदनन्तरम्' इत्यादि For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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