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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३७५ विषयस्य बाधो निश्चितः स्यात् । इह त्वसौ सन्दिग्धः, पत्रशतव्यतिभेदस्याशुभावित्वेनापि निमित्तेन यौगपद्यग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तेः सम्भवात् । अस्ति च सर्वलोकप्रसिद्धम् 'अतिदृढमव्यवहिता सूची भिनत्ति, न व्यवहितम्' इति व्याप्तिग्राहकं प्रमाणम् । अतस्तत्सामर्थ्यात् प्रत्यक्षे संभवत्यपि भवत्यनुमानस्योदय इति । एवं चेदत्र व्यधिकरणा क्रिया विभागं न करोतीति व्याप्तिग्राहकस्य प्रमाणस्यातिदृढत्वात् प्रत्यक्षस्य चान्यथाप्युपपत्तेः सुस्थितं क्रमानुमानम् । अत एव चानेन प्रत्यक्षस्य बाधः । इदं हि सविषयम् । निर्विषयं च प्रत्यक्षम्, आशुभावित्वमात्रेण प्रवृत्तेः । यच्च सविषयं तत् तथात्वेनावस्थितस्य विषयस्य साहाय्यप्राप्तत्या सबलम्, दुर्बलं च निविषयमसहायत्वात् । व्याप्तिग्राहकेणैव प्रत्यक्षेण हि बाधो यदनुमानेन प्रत्यक्षस्य बाधः । तथा च दिमोहादिष्वनुमानमेव बलवदिति मन्यन्ते वृद्धाः भवति वै प्रत्यक्षादप्यनुमानं बलीयः' इति वदन्तः । वह्नावुष्णत्वग्राहिणः प्रत्यक्षस्य तु नान्यथोपपत्तिरस्तीति का भ्रान्तिरूप होना किस प्रकार सम्भव है ? । ( उ० ) तो पत्तों का छेदन क्रमशः ही होता है' इस क्रमानुमान को निष्पत्ति क्योंकि वहाँ भी तो प्रत्यक्ष का विरोध है । अगर यह मानें कि ( प्र० ) वहीं प्रत्यक्ष के विरोध से अनुमान की प्रवृत्ति रोकी जाती है, जहाँ उनके विषय का प्रत्यक्ष के द्वारा बाधित होना निश्चित हो । अनुमान के विषय कमल के पतों के क्रमशः छेदन का प्रत्यक्ष के द्वारा बाध सन्दिग्ध है, क्योंकि सौ पत्तों का छेदन अतिशीघ्रता से क्रमशः होने से भी यौगपद्य ( एक ही समय उत्पन्न होने ) के ग्राहक प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति हो सकती है । 'सूई अगर किसी से व्यवहित न रहे, तो अतिदृढ़ वस्तु का भी भेदन करती है, एवं व्यवहित होने पर नहीं' यह सर्वजनीन अनुभव ही ( उक्त क्रमानुमान के कारणीभूत ) व्याप्ति का निश्चायक है । अतः इस व्याप्ति के बल से विरोधी प्रत्यक्ष की For Private And Personal फिर ' कमल के सौ किस प्रकार होगी ? । प्रवृत्ति रहने पर भी अनुमान का उदय होता है । ( उ० ) तो फिर प्रकृत में भी ' एक अधिकरण में रहनेवाली क्रिया दूसरे अधिकरण में विभाग को उत्पन्न नहीं करती है' व्याप्ति का यह प्रमाण अत्यन्त दृढ़ है एवं उक्त योगपद्य प्रत्यक्ष को उपपत्ति और प्रकार से भी हो सकती है । अतः ( दीवाल से हाथ का विभाग एवं दीवाल से शरीर का विभाग इन दोनों के ) क्रमशः होने का अनुमान सुस्थिर है । अत एव इस अनुमान से प्रत्यक्ष का बाध होता है, क्योंकि यह ( अनुमान ) सविषयक यथार्थ ) है, और प्रत्यक्ष निर्विषयक ( भ्रम ) है । केवल दोनों के अतिशीघ्रता से उत्पन्न होने के कारण ही यौगपद्य में प्रवृत्ति है । सविषयक ( यथार्थ ) ज्ञान उस (ज्ञान के द्वारा प्रकाशित) रूप से यथार्थतः विद्यमान वस्तु की सहायता प्राप्त होने के कारण बलवान् है । निर्विषयक ( अयथार्थ ) ज्ञान उससे दुर्बल है, क्योंकि वह असहाय है । अनुमान से प्रत्यक्ष का यह बाध वस्तुतः व्याप्ति के ग्राहक प्रत्यक्ष के द्वारा ही किया जाता है । अत एव 'कहीं
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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