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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग
न्यायकन्दली तदानीं शरीरस्य निष्क्रियत्वात् । नापि हस्तक्रियाकार्यों भवितुमर्हति, व्यधिकरणस्य कर्मणो विभागहेतुत्वादर्शनात् । अतः कारणाकारणविभागस्तस्य कारणमिति कल्प्यते । आकाशादावित्यादिपदं समस्तविभुद्रव्यावरोधार्थम् । अत एव विभागानिति बहुवचनम्, तद्विभागानां बहुत्वात् ।। ____ अत्राहुरेके-कुड्यादिदेशाद्धस्तशरीरविभागयोर्युगपद्धावप्रतीतेस्तयोः कार्यकारणभावाभिधानं प्रत्यक्षविरुद्धमिति । तदसङ्गतम्, हस्तविभागकाले शरीरविभागोत्पत्तिकारणाभावात् । न चासति कारणे कार्योत्पत्तिरस्ति, हस्तक्रिया च न कारणमित्युक्तम् । तस्मात् तयोर्युगपदभिमानो म्रान्तः ।
अनुमानगम्यः क्रमभावः, प्रत्यक्षसिद्धं च योगपद्यम्, प्रत्यक्षे च परिपन्थिन्यनुमानस्योत्पत्तिरेव नास्ति, अबाधितविषयत्वाभावात् । कथं तदनुरोधात् प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमिति चेत् ? उत्पलपत्रशतव्यतिभेदेऽपि कुतोऽनुमानप्रवृत्तिः ? प्रत्यक्षविरोधात् । अथ मन्यसे तत्र प्रत्यक्षविरोधादनुमानं नोदेति, यत्रानेन
शरीर का भी उससे विभाग देखा जाता है। यह (शरीर और दीवाल का विभाग शरीर की) क्रिया से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि शरीर उस समय निष्क्रिय रहता है। हाथ की क्रिया से वह (शरीर और दीवाल का) विभाग उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि एक आश्रय में रहनेवाली क्रिया से उस आश्रय रूप देश से भिन्न देशों में विभाग की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है। अतः यह कल्पना करते हैं कि ( शरीर के) कारण हाथ और अकारणीभूत प्रदेशों का विभाग ही उस विभाग का कारण है। 'आकाशादि' शब्द में प्रयुक्त 'आदि' शब्द सभी विभु द्रव्यों का संग्राहक है। इसी कारण विभागान्' यह बहुवचनान्त प्रयोग भी है. क्योंकि उनके विभाग भी बहुत हैं।
इस प्रसङ्ग में कोई कहते हैं कि (प्र.) दीवाल प्रभृति देशों का, हाथ और शरीर दोनों के साथ, दोनों विभागों की प्रतीति एक ही समय होती है। अतः उन दोनों विभागों में से एक को कारण मानना और दूसरे को कार्य मानना प्रत्यक्ष के विरुद्ध है । ( उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस समय दीवाल से हाथ का विभाग उत्पन्न होता है उस समय दीवाल से शरीर के विभाग की उत्पत्ति होने का कारण नहीं रहता है। कारणों के न रहने से कार्यों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। पहिले कह चुके हैं कि हाथ की क्रिया उस ( दीवाल और शरीर के विभाग ) का कारण नहीं है। अतः यह कहना भ्रान्त, अभिमान (मूलक ) ही है कि हाथ एवं शरीर दोनों से ( दीवाल प्रभृति का ) एक ही समय दो विभाग उत्पन्न होते हैं ।
(प्र.) उक्त दोनों विभागों का एक समय में उत्पन्न होना प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है एवं उन दोनों विभागों का क्रमशः उत्पन्न होना अनुमान से सिद्ध होता है। प्रत्यक्ष से विरुद्ध अनुमान की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि अनुमान के विषय का प्रत्यक्ष के द्वारा बाधित न होना आवश्यक है। तो फिर अयोगपद्य के अनुमान से योगपद्य के प्रत्यक्ष
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