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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् दिसंयोगमुत्पाद्यमुक्त्वा पृथङ् नित्यं ब्रूयात्, न त्वेवमत्रवीत्, तस्मान्नास्त्यजः संयोगः । परमाणुभिराकाशादीनां प्रदेशवृत्तिरन्यतरकर्मजः संयोगः । उसी प्रकार अगर नित्य संयोग भी होता तो ) उत्पत्तिशील अन्यतर कर्मजादि संयोगों को कहने के बाद नित्य संयोग का भी अलग से उल्लेख अवश्य ही करते, सो नहीं किया है, अत: संयोग नित्य नहीं है । परमाणुओं के साथ अकाशादि के संयोग न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal ३५६ एकस्य त्रिविध एव संयोग इत्युक्तम् । नित्यस्यापि संयोगस्य सम्भवादिति केचित्, तत्प्रतिषेधार्थमाह - नास्त्यजः संयोगः, परिमण्डलवत् पृथगनभिधानात् । सर्वज्ञेन महर्षिणा सर्वार्थोपदेशाय प्रवृत्तेन पृथगनभिधानात्, अजः संयोगो नास्ति, खपुष्पवत् । एतदेव विवृणोति - यथेत्यादिना । संयोगोऽजो न भवतीति प्रतिज्ञार्थो न पुनरजः संयोगो नास्तीति, आश्रयासिद्धत्वात् । ननु परमाण्वाकाशयोः संयोगो नित्य एव, योनित्यत्वादप्राप्त्यभावाच्च । यत् पुनरयं कणादेन नोक्तः, तद् भ्रान्तेः पुरुषधर्मत्वात्, अत आह— परमाणुभिराकाशादानामिति । यथा महतो न्यग्रोधस्य मूलाग्रावयवव्यापिन मूलादग्रमग्रान्मूलं गच्छता पुरुषेण संयोगविभागावन्यतरकर्मजौ युगपत्प्रतीयेते, तथा व्यापि - 'संयोग तीन ही प्रकार के हैं' इस अवधारण के प्रसङ्ग में किसी को आपत्ति है कि उक्त अवधारण ठीक नहीं है, क्योंकि नित्य भी संयोग हो सकता है । इसी पूर्वपक्ष का खण्डन 'नास्त्यजः संयोगः' इत्यादि से किया गया है । अर्थात् सभी विषयों के ज्ञाता महर्षि कणाद सभी वस्तुओं के उपदेश देने के लिए प्रवृत्त हुए थे । अत: अगर नित्य परिमण्डल की तरह नित्य संयोग की भी सत्ता रहती तो नित्य परिमण्डल की तरह उसका भी उल्लेख अवश्य ही करते । किन्तु गगनकुसुम की तरह नित्यसंयोग का भी उल्लेख महर्षि ने नहीं किया है, अतः नित्यसंयोग नहीं है । 'यथा' इत्यादि से इसी का विवरण देते हैं । 'संयोग नित्य नहीं है' प्रकृत में इसी आकार की प्रतिज्ञा है 'नित्यसंयोग नहीं है' इस प्रकार की नहीं, क्योंकि इस ( दूसरी ) प्रतिज्ञा का आश्रय ( पक्ष ) नित्यसंयोग (आकाशकुसुम की तरह अप्रसिद्ध है) अतः इसके लिए प्रयुक्त हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास होगा । ( प्र०) परमाणु और आकाश का संयोग तो नित्य है, क्योंकि वे दोनों ही नित्य हैं और वे दोनों कभी अप्राप्त ( असम्बद्ध) भी नहीं रहते । ( इस वस्तुस्थिति के अनुसार यह कहना ही पड़ेगा कि ) कणाद ने जो नित्य संयोग का निरूपण नहीं किया है, इसका कारण उनकी भ्रान्ति हैं, चूंकि भ्रान्ति पुरुष का धर्म है। इसी पूर्व पक्ष के समाधान के लिए 'परमाणुभिराकाशादीनाम्' इत्यादि पक्ति लिखते हैं । जैसे कि एक महान वटवृक्ष के मूल से ऊपर की तरफ जाते हुए पुरुष का, एवं 'अग्रभाग से मूल की तरफ आते हुए पुरुष का एक ही समय उस वृक्ष के साथ अन्यतरकर्मज संयोग और अन्यतरकर्मज विभाग दोनों ही प्रतीत होते हैं. क्योंकि वे दोनों अव्याप्यवृत्ति हैं, उसी प्रकार परमाणु और आकाश का भी अन्यतरकर्मजसंयोग ( आकाश के
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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