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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् तुरीसंयोगेभ्य एकः पटतुरीसंयोगः। एकस्माच्च द्वयोरुत्पत्तिः कथम् ? हुए पट और आकाश के (एक ही संयोगज ) संयोग की उत्पत्ति होती है। ( ३ ) ( बहुत से संयोगों से एक संयोगजसंयोग की उत्पत्ति इस प्रकार होती है कि ) तुरी और तन्तुओं के बहुत से संयोगों से तुरी और पट के एक ही ( संयोगज ) संयोग का उत्पत्ति होती है। (प्र०) ( किन्तु ) एक (संयोग ) न्यायकन्दली द्वितन्तुककारणसंयुक्तवीरणवत् । न च तस्य संयोगस्य कारणान्तरमस्ति, अतो द्वितन्तुककारणयोस्तन्त्वोराकाशसंयोगाभ्यामेव तस्योत्पत्तिः । बहुभ्यश्च तन्तुतुरीसंयोगेभ्य एकः पटतुरीसंयोगः, पटकारणानां तन्तूनां प्रत्येकं तुर्या सह संयोगः, तेभ्यो बहुभ्य एकः पटतुर्योः संयोगो जायते। पटारम्भकत्वं तु तन्तूनां खण्डावयविद्रव्यारम्भपरम्परया। न च मूर्तानां समानदेशतादोषः, यावत्सु तन्तुष्वेकोऽवयवी वर्तते, तावत्स्वेवान्यूनानतिरिक्तेषु परस्य समवायानभ्युपगमात् । द्वितन्तुकं द्वयोस्तन्त्वोः समवैति, त्रितन्तुकं तु तयोस्तन्त्वन्तरे चेत्युत्तरोत्तरेषु कल्पनायां कुतः समानदेशत्वम् ? अत एव च पटे पाटिते तिष्ठति चाल्पतरतमादिभावभेदेन खण्डावयविग्रहणम् । तेषु विनष्टेषु तु यद्यारभ्यते पटो दुर्घटमिदम् । उत्पन्न होते ही उस पट के साथ संयुक्त हो जाता है, क्योंकि आकाश और द्वितन्तुक पट के संयोग का कोई दूसरा कारण नहीं है। अत: द्वितन्तुक पट के कारणीभूत दोनों तन्तुओं के साथ आकाश के दोनों संयोगों से ही उसकी उत्पत्ति होती है। 'बहुभ्यश्च तन्तुतुरीसंयोगेभ्य, एकः पटतुरीसंयोगः' पट के कारणीभूत तन्तुओं में से प्रत्येक तन्तु के तुरी के साथ भिन्न भिन्न संयोग हैं। तुरी और तन्तु के उन बहुत से संयोगों से तुरी के साथ पट के एक संयोग की उत्पत्ति होती है। तन्तुओं से खण्डपटों की, और खण्डपटों से महापट की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार तन्तुओं में भी परम्परा से महापट की जनकता है । (प्र.) इससे तो मूर्तों के समानदेशत्व की आपत्ति होगी ? (उ०) समानदेशत्व की आपत्ति नहीं है, क्योंकि जितने तन्तुओं में एक खण्डपट रूप अवयवी की वृत्तिता मानते हैं, ठीक उतने ही तन्तुओं में-न उनसे अधिक में न उनसे कम अवयवों में दूसरे खण्ड पटरूप अवयवी की वृत्तिता नहीं मानते । द्वितन्तुक पट दो ही तन्तुओं में समवाय सम्बन्ध से रहता है, और त्रितन्तुक पट उन दोनों तन्तुओं में और एक तीसरे तन्तु में भी समवाय सम्बन्ध से रहता है । इस प्रकार के उत्तरोत्तर खण्डपटों की कल्पना में उक्त समानदेशत्व को आपत्ति क्योंकर होगी ? इसलिए कपड़े के किसी बड़े थान को टुकड़े टुकड़े कर देने पर किन्तु बिलकुल नष्ट न कर देने पर छोटे बड़े ४५ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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