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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३५२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् तन्त्वाकाशसंयोगाभ्यामेको द्वितन्तुकः संयोगः । बहुभ्यश्च तन्तु ( २ ) दो संयोगों से संयोगजसंयोग की उत्पत्ति इस प्रकार होती है कि दो तन्तुओं के साथ आकाश के दो संयोगों से उन दोनों तन्तुओं से बने न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal [ गुणे संयोग तदकाय च वीरणे समवेतत्वात् संयोगस्य संयोगहेतुत्वमन्यस्यासम्भवात् परिशेषसिद्धम् । प्रत्यासत्तिश्चात्र कार्यैकार्थसमवायः, तन्तुवीरणसंयोगस्य द्वितन्तुकवीरणसंयोगेन कार्येण सहैकस्मिन्नर्थे वीरणे समवायात् । संयोगस्यैकस्य संयोगजनकत्वे गुणाश्च गुणान्तरमारभन्त इति सूत्रविरोध: ? न, सूत्रार्थापरिज्ञानात् । गुणानामपि गुणं प्रति कारणत्वमित्यनेन कथ्यते, न पुनरस्थायमर्थो बहव एव गुणा आरभन्ते, नैको न द्वावित्यवधारणस्याश्रवणात् । यत् पुनरत्र गुणाश्च गुणान्तरमारभन्त इति, कारणवृत्तीनां समानजात्यारम्भकारणानामयं नियमो न सर्वेषामिति समाधानम्, तदश्रुतव्याख्यातॄणां प्रकृष्टधियामेव निर्वहति नास्माकम् । द्वितन्तुकाकाशसंयोग द्वाभ्यां तन्त्वाकाशसंयोगाभ्यां इति । आकाशं तावदुत्पन्नमात्रेण द्वितन्तुकेन समं संयुज्यते, तत्कारणसंयोगित्वात् नुमान से सिद्ध है ! यहाँ कारणता का सम्पादक (अवच्छेदक) सम्बन्ध कार्यकार्थसमवाय' है, क्योंकि तन्तु और वीरण का संयोग रूप कारण, द्वितन्तुक पट और वीरण के संयोग रूप कार्य के साथ वीरण रूप एक वस्तु ( अर्थ ) में समवाय सम्बन्ध से है । ( प्र० ) अगर एक भी संयोग दूसरे संयोग का कारण हो तो फिर 'गुणाश्च गुणान्तरम्' सूत्रकार की यह उक्त विरुद्ध हो जाएगी ? क्योंकि उन्होंने ( उक्त सूत्र के द्वारा ) कहा है कि बहुत से गुण ( मिलकर ) दूसरे गुण को उत्पन्न करते हैं । ( उ० ) यहाँ उक्तिविरोध नहीं हैं, क्योंकि आपने उक्त सूत्र का अर्थ ही नहीं समझा है । इस सूत्र का इतना ही अर्थ है कि गुण दूसरे गुण के ( भी ) कारण हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि बहुत से गुण मिलकर ही किसी दूसरे गुण को उत्पन्न करते हैं, एक या दो गुण नहीं, क्योंकि इस प्रकार के 'अवधारण' को समझाने के लिए सूत्र में कोई शब्द नहीं है । कुछ लोग उक्त सूत्र का यह अर्थ करते हैं कि कारणों में रहनेवाले गुण से जहाँ समानजातीय गुण की उत्पत्ति होती है वहीं के लिए यह नियम है कि बहुत से गुण मिलकर ही किसी दूसरे गुण को उत्पन्न करते हैं । किन्तु इस प्रकार की अश्रुतपूर्वं व्याख्या से उनके जैसे उत्कृष्ट बुद्धिवाले का ही निर्वाह हो सकता है, मुझ जैसे साधारण बुद्धिवालों का नहीं । 'द्वाभ्यां तन्त्वाकाशसंयोगाभ्यां द्वितन्तुकाकाशसंयोगः " द्वितन्तुक पट के उत्पन्न होते ही उसके साथ आकाश संयुक्त हो जाता हैं, क्योंकि उस ( द्वितन्तुक ) पट के कारण के साथ वह (आकाश) संयुक्त है । जैसे कि तन्तु के साथ संयुक्त वीरण उस तन्तु के द्वारा पट क
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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