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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम् ३३५ प्रशस्तपादभाष्यम् एतावांस्तु विशेषः-एकत्वादिवदेकपृथक्त्वादिष्वपरसामान्याभावा, संख्यया तु विशिष्यते तद्विशिष्टव्यवहारदर्शनादिति । संख्यात्वरूप पर-सामान्य से अतिरिक्त एकत्वत्वादि अपर-सामान्य भी हैं, उस प्रकार से पृथक्त्व में एकपृथक्त्वत्वादि नाम का कोई भी अपरसामान्य नहीं है। किन्तु पृथक्त्व संख्या के द्वारा ही औरों से अलग रूप में समझा जाता है, क्योंकि पृथक्त्व का व्यवहार संख्या से युक्त होकर ही देखा जाता है। न्यायकन्दली तस्य तु नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः संख्यया व्याख्याताः। तस्य द्विविधस्यापि पृथक्त्वस्य नित्यत्वं चानित्यत्वं च निष्पत्तिश्च संख्यया व्याख्याताः । यथैकद्रव्यैकत्वसंख्या परमाणुषु नित्या कार्ये कारणगुणपूविका आश्रयविनाशाच्च नश्यति, तथैकद्रव्यमेकपृथक्त्वम् । यथा अनेकद्रव्या द्वित्वादिका संख्या अनेकगुणालम्बनाया अपेक्षाबुद्धरुत्पद्यते तद्विनाशाच्च विनश्यति, क्वचिच्चाश्रयविनाशाद्विनश्यति, तथानेकद्रव्यद्विपृथक्त्वादिकमपीत्यतिदेशार्थः । नित्यं चानित्यं च नित्यानित्ये, तयोर्भावो नित्यानित्यत्वमिति द्वन्द्वात् परं श्रवणात् त्वप्रत्ययस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः। अत्रापि वाक्ये तुशब्दो विशेषावद्योतनार्थः । तस्य नित्यत्वादयः संख्यया व्याख्याताः, न परिमाणस्येत्यर्थः । 'तस्य तु नित्यत्वानित्यत्वनिष्पत्तयः संख्यया व्याख्याता:' अर्थात इन दोनों प्रकार के पृथक्त्वों के नित्यत्व और अनित्यत्व का निर्णय संख्या के नित्यत्व और अनित्यत्व के निर्णय के अनुसार समझना चाहिए। अर्थात् जैसे कि कार्यद्रव्य में रहने वाली एकत्व रूप 'एकद्रव्या' संख्या अनित्य है, क्योंकि आश्रय के नाश से उसका नाश हो जाता है, और परमाणु में रहने वाली वही संख्या नित्य है। वैसे ही एक पृथक्त्व भी अनित्य और नित्य दोनों है । एवं जिस प्रकार द्वित्वादिरूप 'अनेकद्रव्या' संख्या अनेक एकत्व रूप गुण विषयक अपेक्षा बुद्धि से उत्पन्न होती हैं और उस ( अपेक्षा) बुद्धि के विनाश से विनष्ट होती है, उसी प्रकार द्विपृथक्त्वादि भी उत्पन्न और विनष्ट होते हैं। संख्या के धर्मों का पृथक्त्व में 'अतिदेश' का यही अभिप्राय है । 'नित्यत्यानित्यत्व' शब्द में 'त्वल' प्रत्यय नित्यञ्चानित्यञ्च नित्यानित्ये, तयोर्भावो नित्यानित्यत्वम्' इस तरह के द्वन्द्व समास के बाद किया गया है, अतः उसका सम्बन्ध (प्रयोग केवल अनित्य पद के बाद होने पर भी) उस द्वन्द्व समान में प्रयुक्त प्रत्येक पद के साथ है। इस वाक्य में प्रयुक्त 'तु' शब्द इस विशेष की सूचना के लिए है कि पृथक्त्वादि के नित्यत्वादि तो संख्या से व्याख्यात हो जाते हैं, किन्तु परिमाण के नित्यत्वादि नहीं । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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