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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३३ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दलासन [गुणे परिमाणप्रशस्तपादभाष्यम् अथ व्यणुकादिषु वर्तमानयोमहत्त्वदीर्घत्वयोः परस्परतः को विशेषः ? द्वयणुकेषु चाणुत्वहस्वत्वयोरिति । तत्रास्ति महत्त्वदीर्घत्वयोः परस्परतो विशेषः, महत्सु दीर्घमानीयताम् , दीर्घषु (प्र०) त्र्यसरेणु प्रभृति द्रव्यों में रहनेवाले महत्त्व और दीर्घत्व एवं द्वयणकादि में रहनेवाले अणुत्व और ह्रस्वत्व इनमें क्या अन्तर है ? (उ०) 'भारी वस्तुओं में से जो लम्बी हो उसे ले आओ' यह व्यवहार ही प्रकृत में महत्त्व और दीर्घत्व में भेद का न्यायकन्दली आह-अथेति । समाधत्ते-तत्रास्तीति । यदि दीर्घमहत्त्वयोरभेदो दीर्घषु महदानीयतामिति निर्धारणं न स्यादभेदात् । नहि भवति रूपवत्सु रूपवदा. नीयतामिति, अस्ति चेदं निर्धारणम् । तेन दीर्घत्वमहत्त्वयोर्भेदः कल्प्यते, परिमाणस्य व्याप्यवृत्तित्वादेकस्मिन् द्रव्ये परिमाणद्वयानुपपत्तिरिति चेन्न, विजातीययोरेकत्र वृत्त्यविरोधात्, अवान्तरजातिभेदेऽपि नीलपीतयोरेकत्र समावेशो न दृष्ट इति चेत् ? ययोर्न दृष्टस्तयोर्मा भूत्, दीर्घत्वमहत्त्वयोस्तु सहभावः सर्वलोकप्रतीतिसिद्धत्वादशक्यनिराकरणः । 'अथ' इत्यादि से कोई आक्षेप करते हैं कि (प्र.) दीर्घत्व विशेष प्रकार के महत्त्व से कोई अलग वस्तु नहीं है। एवं ह्रस्वत्व भी अणुत्व का ही एक विशेष रूप है (दीर्घत्व और ह्रस्वत्व नाम का कोई अलग परिमाण नहीं है )। 'तत्रास्ति' इत्यादि सन्दर्भ से इसका उत्तर देते हैं कि अगर महत्त्व और दीर्घत्व दोनों अभिन्न हों तो फिर 'इन लम्बे द्रव्यों में जो सबसे भारी हो उसे ले आओ' इत्यादि प्रकार के निर्धारणों की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि दोनों अभिन्न हैं। यह निद्धारण नहीं होता कि 'रूपयुक्तों में से रूपयुक्त को ले आओ, किन्तु (पहिला ) निर्धारण होता है, अतः दीर्घत्व और महत्त्व में अवश्य ही अन्तर है। (प्र०) परिमाण व्याप्यवृत्ति ( अपने आश्रय को व्याप्त करके रहनेवाली ) वस्तु है, अतः एक द्रव्य में दो ( दीर्घत्व और महत्त्व या ह्रस्वत्व और अणुत्व ) परिमाण नहीं रह सकते । ( उ० ) विभिन्न जाति के दो ( व्याप्यवृत्ति) वस्तुओं का भी एक आश्रय में सत्ता मानने में कोई विरोध नहीं है । (प्र०) ( रूपत्व धर्म के एक होने पर भी ) अवान्तर ( रूपत्वव्याप्यनीलत्वादि ) रूपों से विभिन्न नीलपीतादि रूप एक आश्रय में नहीं देखे जाते । ( उ० ) जिन्हें एकत्र नहीं देखा जाता है उनका एकत्र रहना मत मानिए, किन्तु इससे साधारण जनों के अनुभव से सिद्ध महत्त्व और दीर्घत्व का एकत्र रहना आप नहीं रोक सकते। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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