SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२६ केऽणुत्वमारभते । महत्त्ववत् त्र्यणुकादौ कारणबहुत्व महत्त्वसमानजातीयप्रचयेभ्यो दीर्घत्वस्योत्पत्तिः । अणुत्ववद् द्वयणुके द्वित्वसंख्यातो ह्रस्वत्वस्योत्पत्तिः प्रकार महत्त्व की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार समवायिकारणों में रहनेवाली संख्या, समवायिकारणों में रहनेवाले महत् (दीर्घ) परिमाण, एवं समवायिकारणों में रहनेवाला समानजातीय प्रचय इन्हीं सबों से त्र्यसरेणु प्रभृति द्रव्यों में दीर्घत्व की भी उत्पत्ति होती है । द्व्यणुक में अणुत्व परिमाण की तरह ह्रस्वत्व की भी उत्पत्ति द्वयक के अवयव भूत दोनों परमाणुओं में रहनेवाल द्वित्व संख्या से ही होती है । न्यायकन्दली तमत्वप्रसक्तिरिति पूर्विकैव युक्तिरावर्तनीया । अधिकं चैतद् यन्नित्यद्रव्यपरिमाणस्यानारम्भकत्वम् । परमाणुपरिमाणं न भवति कस्यचिदारम्भकं नित्यद्रव्यपरिमाणत्वात्, आकाशादिपरिमाणवत्, अणुपरिमाणत्वाद्वा मनःपरिमाणवत् । दीर्घत्वस्योत्पत्तिमाह- महत्त्ववदिति । यथा महत्त्वस्य कारणबहुत्वात् समानजातीयात् कारणमहत्त्वात् प्रचयाच्चोत्पत्तिरिति सर्वमस्य महत्त्वेन सह तुल्यम् । द्वयणुके हस्वत्वस्यापि द्वित्वसंख्यैवासमवायिकारणमित्याह- अणुत्ववदिति । कथमेकस्मात् कारणात् कार्यभेदः ? अदृष्टविशेषस्य सहकारिणो भेदात् । महत्त्वविशेष एव दीर्घत्वम्, अणुत्वविशेष एव ह्रस्वत्वमिति मन्यमान परिमाणों से भी अल्प हो जाएगा। इस प्रसङ्ग में इतना और भी कहना चाहिए कि नित्यपरिमाण कभी कारण नहीं होता है, अतः आकाश परिमाण की तरह नित्य होने के कारण परमाणुओं के परिमाण किसी के कारण नहीं हो सकते । एवं जिस प्रकार मन का परिमाण अणु होने से किसी का कारण नहीं होता है, उसी प्रकार परमाणुओं का परिमाण भी अणु होने से किसी का कारण नहीं हो सकता । For Private And Personal 'महत्त्ववत्' इत्यादि सन्दर्भ से दीर्घत्व परिमाण की उत्पत्ति का क्रम कहते है । जैसे कि महत्परिमाण की उत्पत्ति ( उस के आश्रय द्रव्य के उत्पादक अवयवरूप ) कारणों की बहुत्व ( संख्या ) से और कारणों के महत्त्व और प्रचय से होती है, ये सभी दीर्घत्व में भी महत्त्व के ही जैसे हैं । द्वणुक के ह्रस्वत्व में भी ( उसके अणुत्व की तरह ) कारणों में रहनेवाली द्वित्व संख्या ही कारण है, यही बात 'अणुत्ववत्' इत्यादि से कहते हैं । ( प्र० ) ( परमाणुओं की ) एक ही ( द्वित्व संख्यारूप ) कारण से ( अणुत्व और ह्रस्वत्व रूप ) दो विभिन्न कार्य सहकारिकारणों के भेद से ( उक्त एक कारण से ) कैसे होते हैं ? ' ( उ० ) अदृष्ट रूप विभिन्न कार्यों की उत्पत्ति होती हैं । ४२
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy