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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या प्रशस्तपादभाष्यम् लिङ्गाभावेऽपि ज्ञानमात्रादनुमानम् , तथा गुणविनाशेऽपि गुणबुद्धिमात्राद् द्रव्यप्रत्ययः स्यादिति । न, विशेष्यज्ञानत्वात् । नहि विशेष्यज्ञानं सारूप्याके ज्ञान से अनुमिति का उपादन किया है, वैसे ही यहाँ भी ( द्वित्व ) गुण का नाश हो जाने पर भी उसके ज्ञान से ही द्रव्य विषयक उक्त ज्ञान की उत्पत्ति होगी। (उ०) किन्तु सो कहना सम्भव नहीं है, क्योंकि वह (द्रव्य विषक ) ज्ञान 'विशेष्यज्ञान' अर्थात् विशिष्ट ज्ञान है । ( विशिष्ट ज्ञान ) विशेष्य में विशेषण के सम्बन्ध के बिना ( फलतः विशेष्य में विशेषण की सत्ता के बिना ) केवल 'सारूप्य' न्यायकन्दली अत्राशङ्कते-लैङ्गिकवदिति । एतद्विस्पष्टयति-स्यान्मतमित्यादिना । एवं ते मतं स्यादिदमभिप्रेतं भवेत् । यथा ध्वनिविशेषेण पुरुषानुमाने ज्ञातमेव ध्वनिलक्षणं लिङ्गमभूतमविद्यमानं विनष्टमेव भूतस्य विद्यमानस्य पुरुषविशेषस्य लिङ्गं भवतीति लिङ्गस्याभावेऽपि तज्ज्ञानमात्रादेव लैङ्गिकं ज्ञानं जायते, तथा गुणबुद्धिसमकालं द्वित्वे विनष्टेऽपि तज्ज्ञानमात्रादेव द्वे द्रव्ये इति ज्ञानं स्यादिति । अन्यस्तु-अभूतं वर्षकर्म भूतस्य वाय्वभ्रसंयोगस्य लिङ्गमित्यत्र वर्षकर्मणो लिङ्गस्याभावेऽपि तज्ज्ञानमात्रादेवानुमानमिति व्याचष्टे । तदसङ्गतम् , नत्र वर्षकर्म लिङ्गम् अपि तु तस्याभावः । स च तदानीमस्त्येव, स्वरूपेण वस्त्वनुत्पादे प्रागभावस्याविनाशात् । तस्मादस्मदुक्तैव रीतिरनुसरणीया । बुद्धि का कारण उस समय नहीं है। 'लैङ्गिकवत्' इस वाक्य के द्वारा सहा नवस्थान रूप विरोधपक्ष के समर्थन का उपक्रम करते हैं, एवं 'स्यान्मतम्' इत्यादि से इसी पक्ष को स्पष्ट करते हैं । अर्थात् यह सहानवस्थान रूप विरोध मानने वालों का यह अभिप्राय हो सकता है कि जैसे विशेष प्रकार की ध्वनि से पुरुष का अनुमान होने में ध्वनि रूप हेतु केवल ज्ञात ही रहता है (पुरुष की अनुमिति के अव्यवहित पूर्वक्षण में उसकी सत्ता नहीं रहती है), अत: 'अभूत' अविद्यमान फलतः विनष्ट ( ध्वनि रूप हेतु ) ही 'भूत' अर्थात् विद्यमान उस पुरुषविशेष का (ज्ञापक ) हेतु होता है। जिस प्रकार हेतु के न रहने पर भी हेतु के केबल ज्ञान से ही पुरुष की उक्त अनुमिति होती है, उसी प्रकार गुण रूप द्वित्व विषयक ज्ञान के समय ही दित्व के नष्ट हो जाने पर भी ( विनष्ट) द्वित्व के ज्ञान से 'द्वे द्रव्ये' यह ज्ञान भी होगा। 'अभूतं भूतस्य' इस (वैशेषिक ) सूत्र की व्याख्या कोई इस प्रकार करते हैं कि 'अभूतम्' अर्थात् अविद्यमान वर्षा रूप क्रिया 'भूतस्य' अर्थात् वायु एवं मेघ के विद्यमान संयोग का (ज्ञापक) लिङ्ग है। किन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है, क्योकि प्रकृत में वर्षा रूप क्रिया ( वायु और मेघ के संयोग का ज्ञापक) हेतु नहीं है, किन्तु वर्षा रूप क्रिया का ( प्राक् ) अभाव ही ( उक्त संयोग का) हेतु है । वह For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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