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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् प्रशस्तपादभाष्यम् २८७ प्रशस्तपादभाष्यम् शोभनमेतद्विधानं वध्यघातकपक्षे, सहानव स्थानलक्षणे तु विरोधे द्रव्यज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्गः । कथम ? गुणबुद्धिसमकालमपेक्षाबुद्धिविनाशाद् द्वित्वविनाशे तदपेक्षस्य द्वे द्रव्ये इति द्रव्यज्ञानस्यानुत्पत्तिप्रसङ्ग इति । लैङ्गिकवज्ज्ञानमात्रादिति चेत् ? स्यान्मतम् , यथाऽभूतं भूतस्येत्यत्र ( इस प्रक्रिया को स्वीकार करने पर 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के ) द्रव्य ज्ञान की उत्पत्ति न हो सकेगी। (प्र०) कैसे ? (उ०) चूंकि गुणरूप द्वित्वविषयक बुद्धि के समय ही द्वित्व का नाश हो जाएगा, अतः द्वित्व के द्वारा उत्पन्न होनेवाले 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के द्रव्यज्ञान की उत्पत्ति न हो सकेगी। इस विषय में यह कह सकते थे कि (प्र०) अनुमिति की तरह (हेतुविषयक ज्ञान से ही) उक्त द्वे द्रव्ये' इस द्रव्यविषयक ज्ञान की उत्पत्ति होगी। ( अभिप्राय यह है कि ) जैसे 'अभूतं भूतस्य' इस सूत्र के द्वारा महर्षि ने हेतु के न रहने पर भी हेतु । न्यायकन्दली वस्थानं चापरे। तत्राचार्यो वध्यघातकपक्षपरिग्रहं कुर्वन्नाह-शोभनमेतद्विधानमिति । एतद्विधानमेष द्वित्वप्रकारः। वध्यघातकपक्षे द्वितीयं ज्ञानमुत्पद्य क्षणान्तरे पूर्व विज्ञानं नाशयतीति पक्षे शोभनं युक्तमित्यर्थः । सहानवस्थानलक्षणे तु विरोधे एकस्य ज्ञानस्योत्पादोऽपरस्य विनाश इति पक्षे द्वे द्रव्ये इति ज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्गः, तस्मात् सहानवस्थानलक्षणो न युक्त इत्यभिप्रायः। एतदेवोपपादयति-कथमित्यादिना। सहानवस्थानपक्षे हि द्वित्वकाले एवापेक्षाबुद्धेविनाशाद् द्वित्वस्य विनश्यत्ता, गुणबुद्धिसमकालं च द्वित्वस्य विनाश इति क्षणान्तरे द्वित्वापेक्षस्य द्वे द्रव्ये इति ज्ञानस्योत्पत्तिर्न भवेत् कारणाभावात् । आचार्य (प्रशस्तपाद ) वध्यघातक पक्ष को ग्रहण करते हुए 'शोभनमेतद्विधानम्' यह वाक्य लिखते हैं। ‘एतद्विधानम्' अर्थात् द्वित्व की उत्पत्ति का यह क्रम 'वध्यघातकपक्षे' अर्थात् 'पहिला ज्ञान उत्पन्न होकर दूसरे ज्ञान को अपने उत्पत्तिक्षण के आगे के क्षण में ही नाश कर देता है' इस पक्ष में 'शोभन' है । 'सहानवस्थानलक्षणे तु विरोधे' अर्थात् 'एक क्षण में ज्ञान की उत्पत्ति ही उससे पूर्व के क्षण में उत्पन्न ज्ञान का विनाश है' इस पक्ष में 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं होगी। अतः 'सहानवस्थान' रूप विरोध पक्ष ठीक नहीं है । 'कथम्' इस पद से प्रश्न कर इसका उपपादन करते हैं। ( अर्थात् ) सहानवस्थान पक्ष में द्वित्व के उत्पत्तिकाल में ही अपेक्षाबुद्धि के विनाश से द्वित्वविनाश की सागग्री एकत्र हो जाती है. अतः द्वित्वविषयक (निर्विकल्पक ) बुद्धि की जिस क्षण में उत्पत्ति होती है, उस क्षण में द्वित्व का नाश हो जाता है, सुतराम् इसके अगले क्षण में 'द्वे द्रव्ये' इस विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि द्वित्व रूप उस For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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