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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २२ ) विभागजविभाग भी दो प्रकार का है। (१) कारणमात्रजन्य और (२) कारणाकारण विभागजन्य । जिस विभाग की उत्पत्ति होगी, उस विभाग के समवायकारणीभूत द्रव्यों के ही विभाग से जो विभाग उत्पन्न हो उसे 'कारणमात्रविभागजन्य विभाग' कहते हैं। घट-नाश से लेकर उसके उत्पादक कर्मनाश पर्यन्त के पर्यालोचन से यहाँ की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। उसका यह क्रम है कि पहिले घट के अवयव रूप दोनों कपालों में क्रिया (हलचल) की उत्पत्ति होती है। फिर घट के उत्पादक दोनों कपालों में विभाग उत्पन्न होता है। कपालों के इस विभाग से घट के उत्पादक कपालों के संयोग का नाश होता है। चूंकि कपालों का संयोग घट का असमवायिकारण है, अतः इसके नाश से घट का नाश होता है। तब तक कपालों में क्रिया रहती ही है । घट-नाश के बाद कर्म से युक्त उन कपालों का संयोग पहिले के जिस देश के आकाश के साथ था, उस देश से कपालों का विभाग उत्पन्न होता है। आकाश के साथ कपालों के इस विभाग का असमवायिकारण पहिले कहा गया दोनों कपालों का क्रियाजनित विभाग ही है। पूर्व देशों के आकाश से एक दूसरे से विभक्त दोनों कपालों का यह विभाग ही "कारणमात्रविभागजन्य विभागजविभाग" है। क्योंकि इस विभाग के समवायिकारण दोनों कपाल और पूर्वदेशों का आकाश है। अतः दोनों कपाल भी इस विभाग के समवायिकारण हैं। अतः प्रकृत विभाग के समवायिकारणीभूत केवल दोनों कपालों के विभाग से ही वह उत्पन्न होता है, किसी और द्रव्यों के विभाग से नहीं । इसके बाद विभागजविभाग से कपालों का जिस पूर्वदेश के साथ पहिले संयोग था, उस संयोग का नाश होता है। फिर दूसरे देशों के आकाश ( उत्तरदेश ) के साथ इन विभक्त कपालों का संयोग होता है। करालों को उस क्रिया का नाश होता है, जिससे दोनों कपालों का विभाग उत्पन्न हुआ था। इस प्रसङ्ग में इन दो विषयों को भी समझना आवश्यक है। (१) जिस क्रिया से कपालों का परस्पर विभाग उत्पन्न होता है, उस क्रिया से ही विभक्त कपालों का पूर्वदेश के आकाश के साथ कथित विभाग को उत्पत्ति क्यों नहीं मानते ? क्योंकि क्रिया में विभाग की हेतुता स्वीकृत है। एवं क्रिया को सत्ता इस विभाग के कई क्षणों बाद तक रहती है। फिर विमाग में विभाग की हेतुता की नयी कल्पना क्यों की जाती है ? दूसरी बात यह है कि अगर उक्त दूसरे विभाग की उत्पत्ति विभाग से ही मान भी लें तो यह पहिला विभाग दूसरे विभाग का असमवायिकारण ही होगा। असमवायिकारण का संबलन हो जाने पर कार्य की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं रह जाती है। फिर अवयवों के विभाग के बाद ही अवयवी के नाश से पूर्व ही उक्त दूसरे देश के साथ अवयवों का (विभागज) विभाग क्यों नहीं उत्पन्न हो जाता ? इसके लिए घट के उत्पादक संयोग का विनाश और घट का विनाश इन दो कार्यों के लिए अपेक्षित दो क्षणों का विलम्ब सहने की क्या आवश्यकता है ? इन दोनों में प्रथम प्रश्न का यह समाधान है कि अगर उक्त दूसरे विभाग को भी क्रियाजन्य माने तो कमल खिलने की अपेक्षा विनष्ट ही हो जाएँगे। क्योंकि संयोग दो प्रकार के हैं। एक संयोग से अवयवी की उत्पत्ति होती है, जैसे दोनों कपालों का For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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