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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २१ ) असमवायिकारण नहीं हो सकती, अतः उसके असमवायिकारण होने की बात ही नहीं उठती । सुतराम् प्रकृत में हाथ और शरीर इन दोनों के लिए गुण रूप किसी असमवायिकारण की कल्पनः आवश्यक है । यह गुण उक्त संयोग से अव्यवहित पूर्वक्षण में नियत रूप से रहनेवाले हाथ और पुस्तक के संयोग को छोड़ कर दूसरा नहीं हो सकता । अतः हाथ और पुस्तक की क्रिया से उत्पन्न संयोग से ही शरीर और पुस्तक का संयोग उत्पन्न होता है । सुतराम् संयोगजसंयोग का मानना आवश्यक है। (१) नोदन और (२) अभिधात संयोग के ये दो और प्रकार भी हैं। जिस संयोग से शब्द की उत्पत्ति न हो उसे 'नोदन कहते हैं। एवं इसके विपरीत जिस संयोग से शब्द की उत्पत्ति हो उसे 'अभिघात' कहते हैं । विभाग संयोग को विनष्ट करनेवाले गुण का नाम 'विभाग' है। संयोग की तरह यह भी (१) एक क्रिया से उत्पन्न (२) दो क्रियाओं से उत्पन्न और (३) विभाग से उत्पन्न भेद से तीन प्रकार का है। पर्वत से पक्षी का विभाग केवल पक्षी में रहनेवाली क्रिया से ही उत्पन्न होता है। परस्पर गुथे हुए दो पहलवानों का विभाग दोनों पहलवानों में से प्रत्येक में रहनेवाली अलग अग दो क्रियाओं से उत्पन्न होता है । संयोगजसंयोग की तरह ‘विभागजविभाग' का भी मानना आवश्यक है। क्योंकि किसी व्यक्ति के हाथ का संयोग अगर किसी वृक्ष के साथ था, और हाथ की क्रिया से उस संयोग के छूट जाने पर वृक्ष से हाथ का विभाग हो जाता है। हाथ और वृक्ष के इस विभाग के उत्पन्न होने पर वृक्ष से शरीर के विभाग की भी प्रतीति होती है। शरीर और वृक्ष का विभाग अगर क्रिया से उत्पन्न होगा तो फिर शरीर की क्रिया से या वृक्ष की क्रिया से अथवा दोनों की क्रिया से ही उत्पन्न हो सकता है। प्रकृत में क्रिया केवल हाथ में ही है, पूरे शरीर में नहीं। वृक्ष में तो है ही नहीं। हाथ अवयव है शरीर अवयवी, अतः दोनों भिन्न हैं। सुतराम् घट की क्रिया से जैसे कि पट और दण्ड का विभाग उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार हाथ को क्रिया से वृक्ष का भी विभाग नहीं उत्पन्न हो सकता। अतः हाथ और वृक्ष का विभाग ही शरीर और वृक्ष के विभाग का कारण है। अतः विभागजविभाग का मानना आवश्यक है। इसी हेतु से विभाग को संयोगध्वंस रूप न मानकर स्वतन्त्र गुणरूप भाव पदार्थ मानना पड़ता है। अगर ऐसा न माने अर्थात् विभाग को संयोगध्वस रूप ही मानें तो हाथ और तरु के विभाग के बाद जो शरीर और तरु के विभाग की प्रतीति होती है, वह न हो सकेगी, क्योंकि शरीर और तरु का विभाग शरीर और तरु के संयोग का ही विनाश रूप होगा। शरीर में क्रिया है नहीं, क्रिया है हाथ में । हाथ की क्रिया से शरीर के संयोग का विनाश कैसे होगा ? हाथ की क्रिया से जिस संयोगविनाश की उत्पत्ति होगी वह तो हाथ में ही रहेगी, शरीर में नहीं। अतः विभाग संयोग का अभाव रूप नहीं है, किन्तु गुण रूप भाव ही है। विभाग को भाव रूप मान लेने से प्रतीतियों की उपपत्ति दिखलायी जा चुकी है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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