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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७. न्यायकन्दलीसंवलिंतप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेसंख्या प्रशस्तपादभाष्यम् सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च। तत्रैकद्रव्याया: सलिलादिपरमाणु रूपादोनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका परान्तिा। वह एकद्रव्या ( एकद्रव्य मात्र में रहनेवाली ) एवं अनेकद्रव्या ( अनेक द्रव्यों में ही रहने वाली ) भेद से दो प्रकार की है। इनमें एकद्रव्या संख्या के नित्यत्व और अनित्यत्व का निर्णय परमाणुरूप जल एवं कार्यरूप जल के रूपादि की तरह है। अनेकद्रव्या संख्या द्वित्व से लेकर परार्द्ध पर्यन्त है। न्यायकन्दली असति बाह्ये वस्तुनि स्वसन्तानमात्राधीनजन्मनो वासनापरिपाकस्य कादाचित्कत्वानुपपत्तौ तन्मात्रहेतोर्नीलाद्याकारस्य कादाचित्कत्वासम्भवान्नीलादिकल्पनेति चेत्, एकद्वित्र्याकारस्यापि बाह्यवस्त्वननुरोधिनो न कादाचित्कत्वमुपपद्यत इति सङ्घयापि कल्पनीया, उपपत्तेरुभयत्राप्यविशेषात् । यदपि द्रव्यव्यतिरिक्ता सङ्ख्या न विद्यते, भेदेनाग्रहणादित्युक्तम्, तदप्ययुक्तम्, परस्परप्रत्यासन्नानां वृक्षाणां दूरादेकत्वाद्यग्रहणेऽपि स्वरूपग्रहणस्य सम्भवात् । एवं रूपादिव्यतिरेकोऽपि व्याख्यातः, दूरे रूपस्याग्रहणेऽपि द्रव्यप्रत्ययदर्शनात् । एवं सिद्धे सङ्ख्यास्वरूपे तस्या भेदं प्रतिपादयति-सा पुनरेकद्रव्या बाह्य वस्तुओं की सत्ता बिलकुल ही न मानी जाय तो अपने समुदाय मात्र से उत्पन्न होनेवाली वासना का परिपाक कभी होता है कभी नहीं, यह 'कादाचित त्व' असम्भव हो जायगा। एवं केवल वासना के परिपाक से ही उत्पन्न होनेवाले नीलादि का कादाचित्कत्व भी अनुपपन्न हो जायगा । अतः नीलादि की कल्पना करते हैं । (उ०) उसी प्रकार नीलादि आकारों की प्रतीति की तरह एकाकार, द्वित्वाकार, त्रित्वाकारादि प्रतीतियों का भी कादाचित्कत्व की अनुपपत्ति के कारण समान युक्ति से संख्या की कल्पना भी आवश्यक है। _कोई कहते हैं कि (प्र.) द्रव्य की प्रतीति को छोड़कर अलग से संख्या की कोई प्रतीति नहीं होती, अतः द्रव्य से भिन्न संख्या नाम की कोई वस्तु नहीं है। (उ०) किन्तु यह कहना भी असत्य है, क्योंकि आपस में सटे हुए बृक्षों में संख्या का भान न होने पर भी उनके स्वरूपो (द्रव्यों) का ग्रहण होता है । इस प्रकार संख्या की सिद्धि हो जाने पर ‘सा पुनः' इत्यादि से इसके भेदों का १. द्रव्य और संख्या अगर अभिन्न होती तो फिर टूटे हुए वृक्षों के स्वरूप का जहाँ प्रहण होता है वहाँ वृक्ष से अभिन्न संख्या का भी ग्रहण अवश्य ही होता। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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