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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रस्ति, येन तत्सदृशाकार प्रवाहोपलब्धिनिबन्धनः संवादो व्यवस्थाप्येत, नापि सदृशाकारोपलम्भ एव सर्वत्र, विलक्षणाकारोपलम्भस्यापि क्वचिद् भावात् । न चार्थजत्वादेव नीलाकारस्याभ्रान्तत्वसिद्धिः, अर्थस्याप्रतीतौ तज्जन्यत्वविनिश्चयायोगात्, अन्यतश्च प्रमाणादर्थप्रतीतावाका रकल्पना वैयर्थ्यात्, आकारसंवेदना देवार्थसिद्धयभ्युपगमे वा अभ्रान्ताकारसंवेदनादर्थसिद्धिः सिद्धे चार्थे तज्जन्यत्व विनिश्चयादाकारस्याभ्रान्तत्वसिद्धिरित्यन्योन्यापेक्षित्वम् । अबाधितत्वं च नीलाकारवज्ज्ञानारूढस्य सङ्ख्याकारस्याप्यस्ति, अर्थगतत्वेन च बाधाया असम्भवो नीलादिष्वपि दुरधिगमः, तेषां स्वरूपविप्रकृष्टत्वात् । तस्मादाकारमात्र संवेदनमेव सर्वत्र, न चेदेकत्राऽनर्थजोऽन्यत्रापि तथैवेति न नीलादिसिद्धिः । For Private And Personal २६६ " अभ्रान्तता का ज्ञापक प्रमाण नहीं हो सकता । ( प्र०) नीलादि आकारों के समूह (प्रवाह) का प्रत्येक आकार परस्पर भिन्न होते हुए भी सभी एक से हैं । इस सादृश्य के ज्ञान से इस 'संवाद' का निश्चय होगा, अर्थात् यह निश्चय होगा कि अत्यन्त सदृश ये सभी ज्ञान अभ्रान्त नीलाकारादि से अभिन्न ज्ञानसमूह के हैं । इस संवाद निश्चय से सभी आकारों में अभ्रान्तत्व का निश्चय होगा । ( उ० ) ( इस पक्ष के खण्डन में प्रथम युक्ति यह है कि ) ( १ ) प्रत्येक आकार अपने विलक्षण ज्ञान से ही गृहीत होता है, अतः आकार के समूहों में परस्पर सादृश्य का ग्रहण ही असम्भव है । ( २ ) यह बात भी नहीं कि सभी आकार सदृश ही उत्पन्न हों, क्योंकि कहीं कहीं एक ही वस्तु विभिन्न आकारों से भी गृहीत होती है । ( ३ ) यह कहना भी सम्भव नहीं है कि चूँकि नीलादि आकार 'अर्थ' से उत्पन्न होते हैं, अतः वे अभ्रान्त हैं, क्योंकि अर्थनिश्चय के बिना अर्थजन्यत्व का निश्चय सम्भव नहीं है । यदि अर्थ का निश्चय किसी और ही प्रमाण से मान लें तो फिर आकार की कल्पना व्यर्थ हो जाती है । अगर आकार के ही अभ्रान्त ज्ञान से अर्थ का निश्चय मानें तो अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य होगा, क्योंकि आकार के अभ्रान्त ज्ञान से अर्थ की सिद्धि होगी, एवं इसकी सिद्धि हो जाने पर आकार ज्ञान के अर्थजन्य होने के कारण उस में अभ्रान्तत्व को सिद्धि होगी । (यदि आकार की अबाधित प्रतीति को ही नीलादि अर्थों का साधक माने तो फिर ) वह जिस प्रकार नीलादि आकार के विज्ञानों में है, वैसे ही संख्या विज्ञान के आकार मे भी है हो । ( एवं बोद्धों के मत से ) नीलादि आकारों के बाधित न होने से भी उनकी सत्ता नहीं सिद्ध की जा सकती, क्योंकि नीलादि आकारों की वस्तुतः सत्ता न रहने के कारण नीलादि आकारो के बाधित न होने की प्रतीति ही असम्भव है । अतः सभी जगह केवल आकार का ही ज्ञान होता है, है तो और ज्ञान भी बिना अर्थ के के आक्षेपों से नीलादि आकारों की उन ज्ञानों में अगर एक बिना अर्थ के ही होता ही हो सकते हैं । संख्या के सम्बन्ध में इस प्रकार सिद्धि भी सङ्कट में पड़ जायगी । (प्र० ) यदि
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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