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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणरूपादीनां पाकजोत्पत्ति न्यायकन्दली एव जायन्ते कार्यद्रव्यगतरूपादित्वात् पटगतरूपादिवत् । किञ्च, न च पूर्वमवयवानां प्रशिथिलता आसीदिदानीं काठिन्यमुपलभ्यते, नोदनाभिघातयोरिव freeकाठिन्ययोरेकत्र समावेशो युक्तः, परस्परविरोधात् । तस्मात् पूर्वव्यूहनिवृत्तौ व्यूहान्तरमेतदुपजातम् । तथा सति प्राक्तनद्रव्यविनाशः कारणविनाशात्, द्रव्यान्तरस्योत्पादः कारणसद्भावादेवेत्यवतिष्ठते । प्रत्यभिज्ञानं च ज्वालादिवत् सामान्यविषयम् । सर्वावस्थोपलब्धिरपि कार्यस्य विनश्यतोऽपि क्रमेण विनाशात् । नहि घटः परमाणुसञ्चयारब्धो येन विभक्तेषु परमाणुषु सहसैव विनश्येत्, किन्तु द्रयणुकादिप्रक्रमेणारब्धः । तस्य द्वयणुकत्र्यणुकाद्यसङ्घयेयद्रव्यविनाशात्परम्परया चिरेण विनश्यतो यावदविनाशस्तावदुपलब्धिरस्त्येव । एकतश्च पूर्वेऽवयवा विनश्यन्ति, अन्यतश्चोत्पन्नपाकजैरणुभिरपूर्वे तत्स्थाने एवं द्वयणुकादिप्रक्रमेणारभ्यन्ते, तेन रूपादि अपने आश्रयों के नाश से ही नष्ट होते हैं । एवं जिस प्रकार पटस्वरूप कार्यद्रव्य के रूपादि अपने कारणीभूत तन्तुओं के रूपादि से ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार घटादि सभी कार्यद्रव्यों के रूपादि अपने कारणीभूत द्रव्यों के रूपादि से ही उत्पन्न होते हैं । और भी बात है कि पाक से पहिले घटादि में रहनेवाला प्रशिथिल संयोग, एवं पाक के बाद होनेवाला कठिन संयोग दोनों परस्पर विरोधी हैं, नोदनसंयोग एवं अभिघात संयोग इन दोनों की तरह वे परसर अविरोधी नहीं हैं, अतः एक घट में पाक से पहिले का प्रशिथिल संयोग एवं पीछे का कठिन संयोग ये दोनों नहीं रह सकते । अतः यही मानना पड़ेगा कि पहिले 'व्यूह' अर्थात् अवयवों के संयोग का नाश हो जाने पर अवयवों के दूसरे व्यूह ( संयोग ) की उत्पत्ति होती है । फलतः पहिले अवयवी का नाश हो गया; क्योंकि उसके कारण अवयवों के संयोग ( पूर्वव्यूह ) का नाश हो गया है। दूसरे अवयवी की उत्पत्ति होती है, क्योंकि कारणीभूत दूसरे व्यूह ( अवयवसंयोग ) की सत्ता है । पकने के बाद भी 'यह वही घट हैं। इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा तो दोनों में अत्यन्त सादृश्य के कारण होती है जैसे कि दीपादि की ज्वालाओं में इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञायें होती हैं । घटादि की सभी अवस्थाओं की उक्त उपलब्धि में यह युक्ति है कि ( पाक से ) घटादि द्रव्यों का विनाश क्रमशः होता है । परमाणुओं के समूहों से ही तो घट उत्पन्न होते नहीं कि उनमें परस्पर विभागों के उत्पन्न होते ही उनका सहसा नाश हो जाय । द्वघणुकादि क्रम से उनकी उत्पत्ति होती है, अतः द्वणुक यसरेणु प्रभृति के नाश की असंख्य परम्परा से बहुत समय के बाद घटादि का नाश भी होगा, अतः जितने समय तक उनका नाश नहीं हो जाता उतने समय तक उनकी उपलब्धि होना उचित ही है । पहिले के अवयव नष्ट होते हैं एवं अग्नि के ही दूसरे संयोग से रूपादि से युक्त अवयवों से अग्नि के एक संयोग से उसी स्थान पर पाकज For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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