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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेरूपादि प्रशस्तपादभाष्यम् पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगविरोधि सर्वकार्यद्रव्येषु कारणगुणपूर्वकमाश्रयविनाशादेव विनश्यतीति । अग्नि के संयोग से उसका विनाश होता है । जन्य द्रव्यों में उनके अवयवों में रहनेवाले रूप से यह उत्पन्न होता है, एवं आश्रय के विनाश से उसका विनाश होता है। न्यायकन्दली नित्यम । पार्थिवपरमाणष्वग्निसंयोगविरोधि । अग्निसंयोगो विनाशकः पार्थिवपरमाणुरूपस्येति च वक्ष्यामः। सर्वकार्यद्रव्येषु कारणगुणपूर्वकम् । कार्यद्रव्यगतं रूपं स्वाश्रयसमवायिकारणरूपपूर्वकम् । आश्रयविनाशादेव विनश्यति । कार्यरूपविनाशस्याश्रयविनाश एव हेतुः। आश्रयविनाशाद्रूपस्य विनाश इति न मृष्यामहे सहैव रूपद्रव्ययोविनाशप्रतीतेरिति चेन्न कारणाभावात् । मुद्गराभिघातात् तावदवयव क्रियाविभागादिक्रमेण द्रव्यारम्भकसंयोगनिवृत्तौ तदारब्धस्य द्रव्यस्य विनाशः कारणविनाशात्, तद्तरूपविनाशे तु किं कारणम् ? यदि ह्यकारणस्याप्यवयवसंयोगस्य विनाशाद्रूपविनाशः, कपालरूपाण्यपि ततो विनश्येयुपरमाणुओं के रूप नित्य हैं। एवं पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगविरोधि' अर्थात् पार्थिव परमाणुओं में रहने वाले रूपों का अग्नि के संयोग से नाश होता है, यह हम आगे कहेंगे । 'सर्वकार्यद्रव्येषु कारणगुणपूर्वकम्' अर्थात् कार्य-द्रव्यों में रहनेवाले सभी रूप अपने आश्रय के समवायिकारणों में रहने वाले रूपों से ही उत्पन्न होते हैं। आश्रयविनाशादेव विनश्यति अर्थात् उत्पन्न होनेवाले सभी रूपों का नाश अपने आश्रयों के नाश से ही होता है। (प्र. हम यह नहीं मानते कि रूप का आश्रय के नाश से होता है, क्योंकि रूप के नाश एवं उसके आश्रयीभूत द्रव्य के नाश दोनों कः प्रतीति साथ ही होती है। (उ०) नहीं, क्योंकि आश्रयीभूत द्रव्य के नाश के साथ उसमें रहनेवाले रूप के नाश का कारण ही ( उस समय ) नहीं है। मुद्गरादि के आघात से कार्य-द्रव्य के अवयवों में क्रिया, क्रिया से अवयवों का विभाग, इस क्रम के अनुसार द्रव्य के अवयवों के उत्पादक संयोग का विनाश हो जाने पर अवयवी द्रव्य का विनाश होता है। किन्तु तद्गत रूप का विनाश किससे मानेंगे ? आश्रयीभूत द्रव्य के अवयवों का संयोग रूप का कारण नहीं है। अकारणीभूत इस संयोग के नाश को ही अगर रूपनाश का कारण मानें तो फिर उक्त संयोग के नाश से कलादि अवयवों में रहने वाले रूप का भी नाश मानना पड़ेगा, क्योंकि अवयवों का संयोग जैसे कि अवयवी के रूप का कारण नहीं है, वैसे ही कपालादिगत रूप का भी कारण नहीं है। अगर अवयवी में For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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