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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् २५१ प्रशस्तपादभाष्यम् तत्र रूपं चक्षुर्णायं पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति द्रव्याधुपलम्भकं नयनसहकारि शुक्लाद्यनेकप्रकारं सलिलादिपरमाणुषु नित्यं उनमें चक्षु से ही जिसका ग्रहण हो वही 'रूप' है। यह पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों में रहता है । द्रव्यादि के प्रत्यक्ष के उत्पादन में आँख का सहारा है । यह शुक्लादि भेद से अनेक प्रकार का है । जलादि के परमाणुओं में यह नित्य है, एवं पृथिवी के परमाणु में न्यायकन्दली सर्वपदार्थानामभिव्यक्तिनिमित्तत्वादादौ रूपं निरूपयति-तत्र रूपं चक्षु ह्यमिति । तेषां गुणानां मध्ये रूपं चक्षुषेव गृह्यते नेन्द्रियान्तरेण । ननु रूपत्वमपि चक्षुषव गृह्यते कथमिदं वैधर्म्य रूपस्य ? न, गुणेभ्यो वैधर्म्यस्य विवक्षितत्वात् । तथा च प्रकृतेभ्यो निर्धारणार्थं तत्रत्युक्तम् । सामान्यादस्य वैधयं तु सामान्यवत्त्वमेव । पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति । पृथिव्युदकज्वलनेष्वेव वर्तते। द्रव्याधुपलम्भकम् । यस्मिन्नाश्रये वर्त्तते तस्य द्रव्यस्य तद्गतानां च गुणकर्मसामान्यानामुपलम्भकम् । नयनसहकारि । स्वगतं रूपं चक्षुषो विषयग्रहणे सहकारि । शुक्लाद्यनेकप्रकारम् । शुक्लादयोऽनेके प्रकारा यस्य तत् तथाविधम् । सलिलादिपरमाणुषु नित्यम् । सलिलपरमाणुषु तेजःपरमाणुषु च रूप सभी वस्तुओं के प्रत्यक्ष में किसी न किसी प्रकार से अवश्य ही कारण है, अतः 'तत्र रूपं चक्षुर्ग्राह्यम्' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा गुणों में सबसे पहिले रूप का ही निरूपण करते हैं। इन सभी गुणों में रूप चक्षु के ही द्वारा गृहीत होता है और किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं। (प्र०) रूपत्व भी तो केवल चक्षु से ही गृहीत होता है तो फिर 'चक्षुर्मात्रग्राह्यत्व' रूपों का असाधारण धर्म कैसे है ? (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि और गुणों की ही अपेक्षा चक्षुर्णाह्यत्व को रूप का असाधारण धर्म कहना यहाँ अभिप्रेत है, सभी पदार्थों की अपेक्षा नहीं। इसी 'निर्धारण' को हो समझाने के लिए तत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। रूपों में जाति का रहना ही (रूपत्वादि) जातियों से रूप के भिन्न होने का प्रयोजक है ( क्योंकि सामान्य में सामान्य नहीं रह सकता)। 'पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति' अर्थात् रूप पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों में ही रहता है। 'द्रव्याधुपलम्भकम्' अर्थात् रूप जिस आश्रय में रहता है उस द्रव्य का, एवं उस आश्रय द्रव्य में रहनेवाले अन्य गुणों, क्रियाओं और सामान्यों के भी प्रत्यक्ष का प्रयोजक है । 'नयनसहकारि' चक्षुरूपद्रव्य में रहनेवाला रूप चक्षु से होनेवाले सभी प्रत्यक्षों का सहकारिकारण है। शुक्लाधनेकप्रकारम्' 'शुक्लादयोऽने के प्रकारा यस्य' इस व्युत्पत्ति के द्वारा जिसके शुक्लादि अनेक प्रकार हों वही शुक्लाद्यनेकप्रकार' है ( अर्थात् शुक्लादि भेद से रूप अनेक प्रकार के हैं )। 'सलिलादिपरमाणुषु नित्यम्' जल के और तेज के For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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