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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली वियभेन तद्धर्मानुविधानात् । अतत्पूर्वकत्वे हि पटे यत्किञ्चद् गुणान्तरं स्यानियमहेतोरभावात् । एतेनैकमेव सर्वत्र शुक्लं रूपं प्रत्यभिज्ञानादिति प्रत्युक्तम् । तरतमादिभावानुपपत्तिप्रसङ्गाच्च । तस्मात्सामान्यविषया प्रत्यभिज्ञा। पार्थिवपरमाणुरूपादयः पाकाद्वह्निसंयोगाज्जायन्ते न तु परमाणुसमवायिकारणाश्रितरूपादिपूर्वकाः, अतस्तन्निवत्यर्थमपाकजग्रहणम् । सिद्धायामुत्पत्तौ कारणगुणपूर्वकत्वमकारणगुणपूर्वकत्वं चेति निरूपणीयम् । जलादिपरमाणु पट में ऐसे भी गुणों की उत्पत्ति हो जो जन्तुओं में न देखे जाते हों क्योंकि ( 'अवयव के गुणों से ही अवयवी के गुण उत्पन्न होते हैं' इस ) नियम में कोई अन्य) प्रमाण नहीं हैं। अगर यह नियम न हो तो फिर पट में तन्तुओं में न रहनेवाले किसी गुण की उत्पत्ति होने में भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि 'पट में इतने ही गुण उत्पन्न हों' इस विषय में ( उक्त नियम को छोड़ कोई अन्य ) कारण नहीं हैं। कथित युक्ति से ही किसी आचार्य का निम्नलिखित यह मत भी खण्डित हो जाता है कि (प्र.) शुक्ल रूप से युक्त जितने भी द्रव्य दीख पड़ते हैं, उन सभी द्रव्यों में एक ही शुक्ल रूप है, क्योंकि ( जिस शुक्ल रूप को मैंने घट में देखा था, उसी को पट में भी देख रहा हूँ यह ) प्रत्यभिज्ञा होती है । ( उ०) ('अवयव गत गुण ही अवयवी में गुण को उत्पन्न करते हैं' इस नियम की अनुपपत्ति रूप दोष के अतिरिक्त इस पक्ष में) यह दोष भी है कि अगर शुक्ल रूप से युक्त सभी द्रव्यों में एक ही शुक्ल रूप हो तो फिर उनमें इस न्यूनाधिकभाव की प्रतीति नहीं होगो कि 'यह इससे अधिक शुक्ल है' या 'यह इससे कम शक्ल है', अत: कथित प्रत्यभिज्ञा केवल सादृश्य के कारण होती है ( दोनों द्रव्यों में प्रतीत होने वाले शुक्ल रूपों के एकत्व से नहीं)। पार्थिव परमाणु के रूपरसादि पाक से ही उत्पन्न होते हैं, अपने आश्रय के समवायिकारणों में रहने वाले रूप रसादि से नहीं, क्योंकि उन रूपादि के आश्रयीभूत, परमाणुओं का कोई समवायिकारण ही नहीं है। पार्थिव परमाणुओं के पाकजरूपादि में 'कारणगुणपूर्वकत्व' रूप साधर्म्य अव्याप्त न हो जाय, अतः ( प्रकृत साधर्म्य के लक्ष्यबोधक वाक्य में) 'अपाकज' पद दिया है। उत्पत्ति की सिद्धि हो जाने पर फिर उस उत्पन्न वस्तु में ही जिज्ञासा होती है कि उसकी उत्पत्ति कारण के गुणों से होती है या और किसी से ? जलादि के परमाणुओं के रूपादि की तो उत्पत्ति ही नहीं होती ( क्योंकि वे नित्य है ), अतः उनमें कारणगुणपूर्वकत्व साधयं के न होने से भी व्यभिचार दोष नहीं है। इन गुणों को 'कारणगुणपूर्वक' कहने का अभिप्राय केवल इनके स्वरूपों का कथन मात्र है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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