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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८१ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली स्तम्भः पिशाचो न भवतीति, तद्वदेतदपि भविष्यतीति चेद ? न, व्यावृत्तरनुपलब्धिप्रमाणैकगोचरत्वात्, तद्विविक्तेतरपदार्थोपलब्धिस्वभावत्वाच्चानुपलब्धेः प्रतियोग्युपलब्धिमन्तरेणाभावात् । न च स्वरूपविप्रकृष्टत्वे पिशाचस्य ततो व्यावृत्तिप्रतीतिसम्भवः । कथं तहि स्तम्भः पिशाचो न भवतीति प्रतीतिरिति चेत् ? नायं संसर्गप्रतिषेधः, किन्तु तादात्म्यप्रतिषेधोऽयम् । स च स्तम्भात्मतया प्रसञ्जितस्य पिशाचस्य दृश्यत्वाभ्यनुज्ञानात् प्रवर्तते, नान्यथा, यथोक्तम्-- तादात्म्येन यावान्निषेधः स सर्व उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाभ्युपगमेन क्रियते" इति । तत्र स्तम्भस्वरूथैकनियता स्तम्भप्रतीतिस्तदनात्मन्यवच्छेदकारणम्, यदि स्तम्भः पिशाचो भवेत् तेनाप्यात्मना ज्ञातः स्यात् । न च ज्ञानं स्तम्भत्ववत्पिशाचात्मतामपि गृह्णाति, तस्मादयं पिशाचो न भवतीति । ___अथ मतम्, न नीलादिव्यतिरिक्तोऽक्षणिकः क्षणिको वा कश्चिदस्ति, नहीं है । (प्र०) जैसे कि अप्रतीत पिशाच में अन्य से व्यावृत्ति की यह प्रतीति होती है कि 'स्तम्भ पिशाच नहीं है' यहाँ भी वैसे ही विपक्ष-व्यावृत्ति की प्रतीति होगी ? ( उ० ) 'व्यावृत्ति' अर्थात् वृत्तित्व के अभाव का निश्चय अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण से ही हो सकता है। अनुपलब्धि केवल उपलब्धि का अभाव ही नहीं है, किन्तु प्रतीत होनेवाले अभाव के प्रतियोगी से भिन्न की उपलब्धिरूप है । अतः (विपक्ष व्यावृत्ति में अपेक्षित ) अनुपलब्धि साध्योभाव के प्रतियोगीरूप साध्यकी उपलब्धि के विना असम्भव है ( अर्थात् पिशाच की, यदि असत्ता सिद्ध हो जाय तो फिर उस का ज्ञान ही असम्भव है' ) (प्र.) तो फिर स्तम्भ पिशाच नहीं है' यह प्रतीति कैसे होती है ? ( उ० ) यह संसर्ग के अर्थात् आधारआधेयभाव के नियामक पिशाच के सम्बन्ध के अभाव की प्रतीति नहीं है, किन्तु यह उस के तादात्म्य के प्रतिषेध की प्रतीति है, यह भी स्तम्भ रूप से सम्भावित पिशाच को दृश्य मान कर ही प्रवृत्त होता है, अन्यथा नहीं, । जैसा कहा है कि तादात्म्य सम्बन्ध से जितने निषेधों की प्रतीति होती है वे निषिद्ध होनेवाले सभी वस्तुओं की सत्ता मान कर ही होती है। यहाँ केवल स्तम्भ में ही होनेवाली 'यह स्तम्भ है' यह प्रतीति ही स्तम्भ के स्वरूप से भिन्न पिशाचादि के निषेध का कारण होती है। तदनुकूल न्याय का प्रयोग ऐसा है कि 'अगर यह स्तम्भ पिशाच होता तो यह पिशाचत्व रूप से ज्ञात होता, किन्तु स्तम्भोऽयम्' यह ज्ञान स्तम्भत्व की तरह पिशाचत्व को समझाने में असमर्थ है। अतः स्तम्भ पिशाच नहीं (प्र०) प्रतीत होनेवाले नीलादि पदार्थों से भिन्न क्षणिक या अक्षणिक कोई पदार्थ है ही नहीं किन्तु पहले की बुद्धि से ज्ञात नीलादि क्षणों में जब वर्तमान कालिक For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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