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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् १४६ न्यायकन्दली न भवन्ति, अयन्तु तद्ग्राह्यस्तस्मान्न तद्गुणः । दिक्कालमनसां विशेषगुणो नास्ति, अयन्तु विशेषगुण इतोऽपि तेषां न भवतीत्याह-वैशेषिकगुणभावाच्चेति । शब्दो दिक्कालमनसां गुणो न भवति विशेषगुणत्वात् सुखादिवदिति प्रयोगः । नन्वेकस्मिन्नर्थेऽनेकसाधनोपन्यासो व्यर्थः, एकेनैव तदर्थपरिच्छेदस्य कृतत्वादिति चेत् ? किमेकप्रमाणावसिते प्रमाणान्तरवैयर्थ्यं फलाभावात् ? पुरुषेणानपेक्षितत्वाद्वा ? न तावत् फलं नास्ति पूर्ववत्तरत्रापि तदर्थप्रतीतिभावात् । नापि पुरुषस्यानपेक्षा सर्वत्र । यत्रातिशयमाधुर्यात् प्रत्यनुभवं सुखोत्पत्तिः, तत्र दृष्टेऽपि पुनः पुनदर्शनाकाङ्क्षा भवत्येव यथाऽत्यन्तप्रियपुत्रादौ । यत्र त्वनपेक्षा तत्रापि पूर्ववदुत्तरस्यापि कारणसद्भावे सति प्रवृत्तस्य न वैयर्थ्यम्, तद्विषयपरिच्छेदेनैवार्थेनार्थवत्त्वात् । पिष्टपेषणे त्दशक्तभङ्गताप्राप्तौ फलमेव न भवति । (उ०) यही कि दिक, काल और मन इन तीनों के जो ससिद्ध संयोगादि गुण हैं उनमें से किसी का भी ग्रहण थोत्र से नहीं होता है। शब्द का ग्रहण श्रोत्र से होता है । तस्मात् शब्द दिगादि तीनों द्रव्यों का भी गुण नहीं है। एवं दिक काल और मन इन तीनों द्रव्यों में कोई भी विशेष गुण नहीं रहता है। शब्द विशेष गुण है, इस हेतु से भी शब्द उनका गुण नहीं है। 'वैशेषिकगुणभावाच्च' इस हेतुवाक्य से यही न्यायप्रयोग इष्ट है। (प्र.) एक ही विषय की सिद्धि के लिए अनेक हेतुओं का प्रयोग व्यर्थ है ? (उ०) इस प्रश्न का क्या आशय है ? (१) एक प्रमाण के द्वारा ज्ञात वस्तु के लिए दूसरे प्रमाण का कथन असङ्गत है ? क्योंकि इससे कोई फल नहीं निकलेगा ? या (२) ज्ञाता को एक प्रमाण से ज्ञात वस्तु के ज्ञान के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है ? अतः दूसरे हेतुओं का कथन असङ्गत है ? पहिली युक्ति इसलिए असङ्गत है कि पहिले हेतु की तरह और हेतुओं से भी साध्य के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं होता है। दूसरी युक्ति इस लिए ठीक नहीं है कि सभी जगह एक हेतु से ज्ञात वस्तु का ज्ञान पुरुष को अनभीष्ट ही नहीं होता है, क्योंकि जहाँ अतिमाधुर्य के कारण विषय के प्रत्येक अनुभव में विलक्षण सुख की उत्पत्ति होती है, वहाँ उस विषय के ज्ञान के बाद भी फिर से ज्ञान होने की आकाङ्क्षा बनी ही रहती है, जैसे कि अत्यन्त प्रिय पुत्रादि के विषय में । जहाँ एक हेतु से ज्ञात वस्तु का ज्ञान अनपेक्षित भी है, वहां भी प्रथम हेतु के समान द्वितीय हेतु में भी ज्ञापकत्व समान रूप से है ही, अतः दूसरे हेतु के प्रयोग की प्रवृत्ति भी व्यर्थ नहीं है, क्योंकि अभीष्ट विषय का ज्ञापकत्व ही प्रयोग की सार्थकता है। वह दूसरे हेतुओं के प्रयोगों में भी है ही । (प्र०) पिसी हुई वस्तु को अगर फिर से पीसने की प्रवृत्ति ठीक हो, तो For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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