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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ द्रव्ये आकाश
न्यायकन्दली
द्वारेणैकेन पुरुषेण प्रतीयते सैवापरेणापि तद्देशत्तिना प्रतीयते, न त्वेवं सुखादिरित्यात्मगुणवैधान्नात्मगुणः । आत्मन्यसमवायादपि शब्दो नात्मगुणः, रूपादिवत् । आत्मन्यसमवायस्तस्यासिद्ध इति चेत् ? न, रूपादिवद् बहिर्मुखतया प्रतीतेरात्मगुणानाञ्चान्तरत्वेनावगमात् । इतश्च नायमात्मगुणः-अहङ्कारेण अहमितिप्रत्ययेन, विभक्तस्य व्यधिकरणस्य ग्रहणात्, यः खल्वात्मगुणः सोऽहङ्कारसमानाधिकरणो गृह्यते, यथा सुख्यहं दुःख्यहमिति, न त्वेवं शब्दस्य ग्रहणमतो नात्मगुणः । प्रियवागहमिति व्यपदेशोऽस्तीति चेत् ? सत्यम्, किन्तु तदधिष्ठानशीलतया न तु तद्गुणाधिकरणत्वेन, मृदङ्गादिशब्देषु तथा प्रतीत्यभावात् । ___अस्तु तहि दिशः कालस्य मनसो गुणस्तत्राह-श्रोत्रग्राह्यत्वादिति । किमुक्तं स्यात् ? ये दिक्कालमनसामुभयवादिसिद्धाः संयोगादयस्ते श्रोत्रग्राह्या
पुरुषों से (एक ही वस्तु का) गृहीत होना। वीणा, वंशी प्रभृति से उत्पन्न शब्द का शब्दान्तर की उत्पत्ति के धाराक्रम से जैसे एक पुरुष को प्रत्यक्ष होता है, उस देश में विद्यमान और पुरुषों को भी उसी शब्द का उसी क्रम से प्रत्यक्ष होता है। (आत्मा के गुण) सुखादि में यह बात नहीं है। इस प्रकार शब्द में आत्मा के विशेष गुणों का आत्मान्तरानामत्व रूप वैधर्म्य रहने के कारण शब्द आत्मा का गुण नहीं है । आत्मा में शब्द का समवाय न रहने के कारण भी शब्द आत्मा का गुण नहीं है, जैसे कि रूपादि । (प्र०) यही सिद्ध नहीं है कि 'आत्मा में शब्द का समवाय नहीं है' (उ०) रूपादि की प्रतीतियों की तरह शब्द की भी प्रतीति बहिमुखी होती है, किन्तु आत्मा के गुणों की प्रतीति अन्तर्मुखी होती है (तस्मात् शब्द का समवाय आत्मा में नहीं है)। अहम्' प्रतीति में विषय न होने के कारण से भी समझते हैं कि शब्द आत्मा का गुण नहीं है। अहङ्कार' से अर्थात् 'अहम्' इस प्रकार की प्रतीति से शब्द का 'विभक्त ग्रहण' अर्थात् व्यधिकरण ग्रहण होता है । अभिप्राय यह है कि जैसे 'अहं सुखी', 'अहं दुःखी' इत्यादि 'अहम्' घटित वाक्यों से सुख दुःखादि की प्रतीति आत्मा के साथ ही होती है। उस प्रकार 'अहं शब्दवान्' इत्यादि 'अहम्' पदघटित वाक्यों से शब्द की प्रतीति का अभिलाप नहीं होता है । (प्र०) 'मैं प्रिय बोलता हूँ' ऐसा व्यवहार तो होता है । (उ०) इस प्रतीति से इतना ही सिद्ध होता है कि प्रियवाक्य का उच्चारण कर्ता मैं है, इससे आत्मा में प्रियशब्द की अधिकरणता सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि मृदङ्गादि के शब्दों में प्रियत्व का व्यवहार होते हुए भी 'मृदङ्गादि प्रियवाक् हैं' इस आकार का व्यवहार नहीं होता है।
फिर शब्द को दिक्, काल और मन इन्हीं तीनों द्रब्यों का ही गुण मान लिया जाय? इसी प्रश्न का समाधानजनक हेतु है श्रोत्र ग्राह्यत्वात् । (प्र०) इस से क्या अभिप्राय निकला ?
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