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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भावानुवादसहितम् न्यायकन्दली अशरीरपूर्वकत्वञ्चाशक्यसाधनम्, सर्वोऽपि कर्त्ता कारकस्वरूपमवधारयति, तत इच्छतीदमहमनेन निर्वर्त्तयामीति, ततः प्रयतते तदनु कायं व्यापारयति, ततः कारणान्यधितिष्ठति, ततः करोति, अनवधारयन्ननिच्छन्नप्रयतमानः कायम - व्यापारयन् न करोतीत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां बुद्धिवच्छरीरमपि कार्योत्पत्तावुपायभूतम् । निखिलोपाधिग्रहणे व्याप्तिग्राहकप्रमाणादेवावधारितं न शक्यते प्रातुं वह्नेरिवेन्धनविकारसामर्थ्यं धूमानुमाने, तत्परित्यागे च बुद्धिरपि परित्यज्यताम् । प्रभावातिशयादशरीरवदबुद्धिमानेवायमीश्वरः करिष्यति । उपादानोपकरणादिस्वरूपानभिज्ञो न शक्नोतीति चेत् ? कुत एतत् ? तथानुपलम्भादिति चेत् ? फलितं ममापि मनोरथद्रुमेण, न तथा यावदिच्छा प्रयत्नव्यवहिता कार्य्योत्पत्तावुपयुज्यते यथेदमव्यवहितव्यापारं शरीरम् । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal १३७ नहीं है, एवं उसके बिना कर्तृत्व ही असम्भव है । यह सिद्ध करना तो बिलकुल ही असम्भव है कि ये महाभूत उन कर्ता से उत्पन्न होते हैं जिनके शरीर नहीं हैं। क्योंकि कर्ताओं का यह स्वभाव है कि वे पहिले उपादानों के स्वरूप को जानते हैं । फिर यह इच्छा होती है कि इन उपादानों से अमुक कार्य को उत्पन्न करें । इसके बाद वे तदनुकूल प्रयत्न करते हैं । फिर अपने संचालित करते हैं । इन सबों के बाद कार्य के कर कार्य को उत्पन्न करते हैं। बिना उपादान रखते हुए, उस कार्य विषयक प्रयत्न के बिना ही, भी कर्ता किसी भी कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता । इस शरीर को उस कार्य के अनुसार उपकरणों को यथावत् परिचालित निश्चय के, उस कार्य की इच्छा न शरीर को हिलाये डुलाये बिना कोई अन्वय और व्यतिरेक से बुद्धि की तरह शरीर में भी कारणता सिद्ध है । व्याप्ति की प्रतिबन्धक उपाधियों की खोज के बाद भी जिस हेतु में जिस साध्य की व्याप्ति गृहीत होती है, उस हेतु से साध्य के ज्ञान को कोई रोक नहीं सकता है । जैसे कि आद्रेन्धन प्रभव वह्निरूप उपाधि से युक्त होने के कारण धूम की सिद्धि नहीं होती हैं। इस प्रकार शरीर में सिद्ध कारणत्व का भी अगर परित्याग करे तो बुद्धि को भी छोड़िए । ईश्वर अगर अतिशय प्रभाव के कारण बिना शरीर के भी महाभूतों को उत्पन्न कर सकते हैं तो फिर बिना बुद्धि के भी उन कार्यों का सम्पादन कर सकते हैं । ( प्र० ) उपादान एवं और कारणों से अनभिज्ञ कर्ता से किसी कार्य का उत्पादन सम्भव नहीं है, भी कार्यों का कारण मानते है ) | ( उ० ) यह आपने कैसे समझा ? घटादि कार्यों में यह देखा जाता है कि वे उपादानादि कारणों के ज्ञान से युक्त कर्ता से ही उत्पन्न होते हैं । ( उ० ) तो फिर हमारे मनोरथ के वृक्ष भी फल गये, क्योंकि जिस प्रकार किसी विषय की इच्छा रहने पर भी अगर उस विषय का प्रयत्न नहीं रहता हैं तो कार्य ( अतः बुद्धि को ( प्र ० ) स्थूल १५
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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