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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०० Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् विषयसंज्ञकं चतुर्विधम् — भौमं दिव्यमुदर्य्यमाकरजञ्च । तत्र भौमं काष्ठेन्धनप्रभव मूर्ध्वज्वलनस्वभावं पचनदहनस्वेदनादिसमर्थम्, दिव्यमविषय नामक तेज के भौम, दिव्य, उदर्य और आकरज भेद से चार प्रकार हैं । इनमें लकड़ी प्रभृति से उत्पन्न तेज 'भौम' है । ऊपर की ओर प्रज्वलित होना उसका स्वभाव है । भौम तेज पाक, दाह एवं वस्तुओं के काठिन्य को दूर कर कोमल बनाने की शक्ति रखता है । जिसमें 'अप्, अर्थात् जल ही लकड़ी का काम [ द्रव्ये तेज: न्यायकन्दली सामर्थ्यास्तेजोऽवयवास्तैरारब्धं चक्षुः, अत इदं विशिष्टोत्पादाद्रूपाभिव्यञ्जकमिन्द्रियं नान्यत् । तादृशं तदुत्पद्यत इत्यत्रादृष्टमेव कारणम्, कार्य्यनियम एव प्रमाणम् । तेजसत्वन्तु तस्य रूपादिषु मध्ये नियमेन रूपस्याभिव्यञ्जकत्वात् प्रदीपवत् । इदं त्वदृष्टवशादनुद्भूतरूपस्पर्शम् तेन न स्वाश्रयं दहति नाप्युपलभ्यते । विषयसंज्ञकं चतुर्विधम् । विषय इति संज्ञा यस्य तद्विषयसंज्ञकं तेजः कार्य्यं चतुविधम् । चातुविध्यमेव दर्शयति- भौममित्यादि । तत्रेति निर्धारणार्थ: । भूमौ भवं भौमं काष्ठेन्धनप्रभवं काष्ठस्वभावं यदिन्धनं तस्मात् प्रभवत्युसे नष्ट नहीं हुआ है, उन तैजस अवययों से इस इन्द्रिय की सृष्टि होती है । चूँकि इसी तेजस द्रव्य की उत्पत्ति उक्त विशेष प्रकार से होती है, दूसरे तेजस द्रव्यों की नहीं अतः यही तैजस द्रव्य रूप के प्रत्यक्ष का उत्पादक है, दूसरे तेजस द्रव्य नहीं । "उक्त विशेष प्रकार से इसी तैजस द्रव्य की उत्पत्ति क्यों होती है ?" इस प्रश्न के उत्तर में अदृष्ट को ही इसका कारण कहना पड़ेगा । एवं इस प्रकार के अदृष्ट की सत्ता में इस नियम को ही प्रमाण मानना पड़ेगा कि इन्द्रियरूप तैजस द्रव्य से ही रूप का प्रत्यक्षरूप कार्य होता है, दूसरे द्रव्यों से नहीं । ( रूपप्रत्यक्ष का उत्पादक ) यह द्रव्य तैजस इस लिए है कि रूपादि गुणों में से यह केवल रूप के ही प्रत्यक्ष का उत्पादन कर सकता है, जैसे कि प्रदीप । अदृष्टवश इसके रूप और स्पर्श अनुभूत हैं, अतः ( स्पर्श के अनुभूतत्व प्रयुक्त ) अपने आश्रय में दाह को एवं ( रूप के अनुभूतत्व प्रयुक्त ) अपने प्रत्यक्ष को उत्पन्न नहीं कर सकता । For Private And Personal 'विषयसंज्ञकं चतुर्विधम्' अर्थात् 'विषय इति संज्ञा यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'विषय' नाम के तेज के कार्य चार प्रकार के हैं । यहीं चारों भेद 'भोमम्' इत्यादि से कहते हैं । 'त' इस पद के सप्तमी विभक्ति का अर्थ है निर्द्धारण । 'भौम' अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न विषयरूप तेज का नाम 'भौम' है। 'काष्ठेन्धनप्रभवम्' अर्थात् लकड़ी रूप
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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