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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् अद्भिः सामान्यवचनाद् द्रवत्वम् । उत्तरकर्मवचनात् संस्कारः। क्षितावेव गन्धः । रूपमनेकप्रकारं शुक्लादि। रसः षड् विधो मधुरादिः । गन्धो द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । स्पर्शोऽस्या अनुष्णाशीतत्वे सति पाकजः । है' अतः (समझना चाहिए कि) गुरुत्व नाम का गुण भी पृथिवी में उन्हें अभीष्ट है । जल के साथ सादृश्य ( २-१-७ ) के कहने से पृथिवी में द्रवत्व भी उन्हें अभीष्ट है । शर प्रभृति पार्थिव, द्रव्य के उत्तर कर्म में संस्कार को कारण कहने ( ५-१-१७ ) से पृथिवी में (वेग और स्थितिस्थापक) संस्कार भी उन्हें अभिप्रेत हैं । गन्ध पृथिवी में ही है। शुक्लादि अनेक प्रकार के रूप भी पृथिवी में ही हैं। मधुरादि छः प्रकार के रस भी पृथिवी में ही हैं। सुरभि (सुगन्ध) और असुरभि (दुर्गन्ध) भेद से गन्ध दो प्रकार का है। पाकज अनुष्णाशीत स्पर्श भी पृथिवी में ही है। न्यायकन्दली पतनोपदेशाद् गुरुत्वमिति । “संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात् पतनम्" ( ५। १ । ७) इत्युपदेशात् सूत्रकारेण पतनसम्बन्धिन्यां पृथिव्यां गुरुत्वमस्तीत्यर्थात् कथितम्, व्यधिकरणस्याकरणत्वात् । अद्भिः सामान्यवचनाद् द्रवत्वम्, “सपिर्जतुमधूच्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यम्" ( २।१ । ७ ) इति वचनात् पृथिव्यां नैमित्तिकं 'पतनोपदेशाद् गुरुत्वम्' अर्थात् 'संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् (५।१।७) इस सूत्र से महर्षि कणाद ने उपदेश किया है कि पतनशील पृथिवी में गुरुत्व है, क्योंकि एक आश्रय में विद्यमान वस्तु दूसरे आश्रय में कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती। 'अद्भिः सामान्यवचनाद् द्रवत्वम्' अर्थात् “सपिजतुमधूच्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यम्” (२ । १ । ७) अर्थात् घृत, लाह, मोम प्रभृति पार्थिव द्रव्यों में अग्नि के संयोग से द्रवत्व को उत्पत्ति होती है । यह (नैमित्तिक द्रवत्व) पृथिवी और जल दोनों १. एक मात्र विजयनगरम् संस्कृत ग्रन्थमाला में मुद्रित न्यायकन्दली की पुस्तक में इस सूत्र का पाठ है "संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात्पतनम्'' (पृ. २६ पं० १४)। यद्यपि यह ठीक है कि विरुद्ध यत्न भी पतन का प्रतिबन्धक है, जिससे कि आकाश में उड़ते हुए पक्षी का पतन नहीं होता है। अतः पतन के लिए उसका भी अभाव अपेक्षित है। किन्तु ढेले को फेंकने पर कुछ दूर तक उसका भी पतन नहीं होता है, अतः वेग को भी पतन का प्रतिबन्धक कहना ही चाहिए। न कहने पर न्यूनता होगी। अत: प्रथमोपात्त संयोग पद को उपलक्षण मानकर उसे पतन के सभी प्रतिबन्धकों में लाक्षणिक For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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