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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१ www.kobatirth.org न्यायकन्वलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ सावयवैधम्य यो दूरे गत्वा सन्तमर्थं गृह्णन्ति, अत एव महदणुप्रकाशकत्वात् किमि - न्द्रियस्य भौतिकत्वं न सिद्धयति ? प्रदीपस्येव रश्मिद्वारेण तदुपपत्तेः । यत्र च रश्मयो भूयोभिः स्वावयवैः सहार्थावयविना तदवयवैश्च सह सम्बद्धयन्ते, तत्राशेषविशेषास्कन्दितस्यार्थस्य ग्रहणात् स्पष्टं ग्रहणम् । यत्र त्ववयवमात्रेण सम्बन्धस्तत्र सामान्यमात्रविशिष्टस्य धम्मिणो ग्रहणादस्पष्टं ग्रहणम् । यद् गच्छति तत् संनिहितव्यव हितार्थो क्रमेण प्राप्नोति । तत् कथं शाखाचन्द्रमसोस्तुल्यकालोपलब्धिरिति चेत् ? इन्द्रियवृ त्तेराशुसञ्चारित्वात् पलाशशतव्यतिभेदवत् क्रमाग्रहणनिमित्तोऽयं भ्रमो न तु वास्तवं यौगपद्यम् । ननु प्राप्तिपक्षे सान्तरालोऽयमिति ग्रहणं न स्यात् ? न, अन्यथा तदुपपत्तेः । इन्द्रियसम्बन्धस्यातीन्द्रियत्वान्न तदभावाभावकृतौ सान्तरनिरन्तरप्रत्ययौ, किन्तु शरीरसम्बन्धभावाभावकृतौ यत्र शरीरसम्बद्धस्यार्थस्य ग्रहणं तत्र निरन्तरोऽयमिति प्रत्ययः, यत्र तु तदसम्बद्धस्य ग्रहणं तत्र सान्तर इति । For Private And Personal करती है । इन्द्रियाँ चूंकि छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की वस्तुओं को दिखलाती हैं, इससे भी उनमें भौतिकत्व की सिद्धि क्यों नहीं होगी ? प्रदीप की तरह रश्मियों में भी भौतिकता सिद्ध हो सकती है । जहाँ पर रश्मियाँ अपने बहुत से अवयवों को लेकर अवयवी रूप वस्तु और उनके अवयवों के साथ सम्बद्ध होती हैं, वहाँ सभी विशेषों से युक्त अवयवी का ज्ञान होता है । अत एव वह ज्ञान ' स्पष्टग्रहण' कहलाता है । जहाँ वे केवल वस्तुओं के किसी अवयव के साथ ही सम्बद्ध होती हैं, वहाँ सामान्यधम्मं से युक्त ही उस धर्मी का ज्ञान होता है, जिसे 'अस्पष्ट ग्रहण' कहते हैं । ( प्र०) गतिशील वस्तु समीप की वस्तुओं के साथ पहिले सम्बद्ध होती है और दूर की वस्तुओं के साथ पीछे, तो फिर गतिशील इन्द्रियों से शाखा और चन्द्रमा का ग्रहण एक ही समय क्यों होता है ? ( उ० ) वस्तुतः एक समय में शाखा और चन्द्रमा दोनों का ज्ञान नहीं होता है । दोनों के ज्ञान क्रमशः ही होते हैं, किन्तु इन्द्रियाँ इतनी शीघ्रता से चलती हैं कि उनकी गति के क्रम का ज्ञान नहीं हो पाता । अत एव यह भ्रम होता है कि शाखा और चन्द्रमा दोनों का ज्ञान एक ही समय होता है । जैसे फूल के सौ पत्रों को सूई से छेदने पर उसका क्रम उपलब्ध नहीं होता और भ्रम होता है कि एक ही समय में सभी पत्रों का छेदन हुआ है । ( प्र० ) इन्द्रियाँ अपने से सम्बद्ध वस्तुओं को ही ग्रहण करती हैं' इस पक्ष में विषय और इन्द्रियों में सार्वजनीन व्यवधान की प्रतीति अनुपपन्न होगी ? ( उ० ) नहीं, क्योंकि दूसरी रीति से उसकी उपपत्ति हो सकती है । इन्द्रियों का सम्बन्ध अतीन्द्रिय है, अत: उसकी सत्ता से व्यवधान की प्रतीति और असत्ता से अव्यवधान की प्रतीति नहीं हो सकती, किन्तु शरीरसम्बन्ध की सत्ता और असत्ता से ही उक्त दोनों प्रतीतियाँ
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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