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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली महत्त्वानेकद्रव्यवत्त्वरूपविशेषाद्यात्मिका व्यवधानेऽपि न निवृत्तव, आर्जवावस्थानमपि तदवस्थमेव । अथ मतम्-आवरणाभावोऽप्यर्थप्रतीतिकारणं संयोगाभाव इव पतनकर्मणि, आवरणे सत्यावरणाभावो निवृत्त इति प्रतीतेरनुत्पत्तिः कारणाभावादिति । नैतत्सारम् आवरणस्य स्पर्शजद्रव्यप्राप्तिप्रतिषेधभावोपलब्धेः, छत्रादिकं हि पततो जलस्य सावित्रस्य च तेजसः प्रतिषेधति, न तु स्वस्याभावमात्रं निवर्तयति । तथा सति सुलभमेतदनुमानम् – प्राप्तप्रकाशकं चक्षुः, व्यवहितार्थाप्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्, बाह्येन्द्रियत्वात् त्वगिन्द्रियवत् । नन्वेवं तहि विप्रकृष्टार्थग्रहणं कुतः ? रश्म्यर्थसंनिकर्षादनुभूतरूपस्पर्शा नायना ही हैं । विषयों में प्रत्यक्ष होने की योग्यता है महत्त्व, अनेकद्रव्यवत्त्वादि, सो दीवाल से घिर जाने पर भी विषयों से हट नहीं जाती। दीवाल से घिर जाने पर भी वे इन्द्रियों के सामने ही रहते हैं । (प्र०) जिस पकार संयोग का अभाव भी पतन का कारण है, उसी प्रकार आवरण का अभाव भी प्रत्यक्ष का कारण है। आवरण के रहते हुए आवरण का अभाव नहीं रह सकता, अत: दीवाल से घिरी हुई वस्तुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि वहाँ आवरणाभाव रूप कारण ही नहीं है। (उ०) आवरण का इतना ही काम है कि स्पर्श से युक्त द्रव्यों के साथ संयोग न होने दे | जैसे छाता गिरते हुए पानी या धूप के साथ संयोग को नहीं होने देता । आवरण का इतना ही काम नहीं है कि अपने अभाव को हटाये। अतः (१) यह अनुमान सुलभ है कि चक्षु अपने से सम्बद्ध वस्तुओं का ही प्रकाशक है, क्योंकि व्यवहित वस्तुओं का प्रकाश उससे नहीं होता, जैसे कि प्रदीप । (२) अथवा चक्षुरादि (इन्द्रियाँ) अपने से सम्बद्ध वस्तुओं के ही प्रकाशक हैं, क्योंकि वे बाह्येन्द्रिय हैं, जैसे कि त्वगिन्द्रिय । (प्र.) तो फिर चक्षु से कुछ दूर हटी हुई वस्तुओं का ही प्रत्यक्ष ( क्यों) और कैसे होता है ? (उ०) चक्षु की रश्मियों के साथ विषयों के संयोग से । 'अनुभूत रूप और अनुद्भूत स्पर्श से युक्त चक्षु की रश्मियाँ वहाँ विद्यमान वस्तुओं के प्रत्यक्ष को उत्पन्न १. चक्षु को रश्मियाँ दूर की वस्तुओं को ग्रहण करने के लिए अगर उनके देशों तक जाती हैं तो फिर सूर्य की रश्मियों की तरह उनके रूप और स्पर्श का भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, किन्तु होता नहीं है । अत: "चक्षु की रश्मियाँ दूर जाकर वस्तुओं को ग्रहण करती हैं" यह कहना ठीक नहीं है। इसी पूर्व पक्ष के समाधान की सूचना देने के लिए कन्दलीकार ने चक्षु की रश्मियों में अनुवभूतरूप और अनुभूत स्पर्श, ये दो विशेषण लगाये हैं। कहने का तात्पर्य है कि अगर चक्षु की रश्मियों का विषय देश तक जाना युक्तियों से सिद्ध है तो फिर उनके रूप और स्पर्श की अनुपलब्धि से वह हट नहीं सकती। उनके प्रत्यक्षापत्तिवारण का यह उपाय सुलभ है कि रश्मियों के रूप और स्पर्श को अनुभूत मान लेना। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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