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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ साधर्म्यवैधH प्रशस्तपादभाष्यम् आश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः । द्रव्यादीनां पञ्चानां समवायित्वमनेकत्वञ्च । नित्य द्रव्यों को छोड़कर और सभी पदार्थों का आश्रितत्व साधर्म्य है। ___ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पाँच पदार्थों के समवायित्व और अनेकत्व ये दो साधर्म्य हैं। न्यायकन्दली दिगात्ममन:सु नास्तीत्याह–अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति । ___ ये तु धर्मान् व्यतिरिक्तानिच्छन्ति तेषामेकस्मिन् समस्तवस्तुव्यापिन्यस्तीतिप्रत्ययहेतावस्तित्वे कल्पिते द्रव्यादिषु सत्तावैयर्थ्यम् । अथास्तित्वं प्रतिवस्तु भिद्यते तदा तत्कल्पनावैयर्थ्यम्, सत्तायाः स्वरूपसत्तायाश्च सदिति प्रत्ययोपपत्तेः। येषान्तु भावस्वरूपमेवास्तित्वं न तेषां व्यर्था सत्ता, स्वरूपस्यानुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वाभावात् । नाप्यस्तित्वमनर्थकं निःस्वरूपे सत्तायाः समवायाभावादित्युभयमुपपद्यते । द्रव्यादीनां विशेषान्तानां साधर्म्य साधयति । समवायित्वं समवायलक्षणा वृत्तिः । अनेकत्वं परस्परविभिन्नत्वमितरेतरव्यावृत्तं स्वरूपमेव । में, तथा आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन इन नौ निःय द्रव्यों में (इतने ही द्रव्य नित्य हैं) यह 'आभितत्व' नहीं है, अतः 'अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" यह वाक्य कहा गया है। जो समुदाय व्यक्तिभेद से धर्मों को भिन्न ही मानना चाहते हैं (वे भी अनेक वस्तुओं में रहनेवाले और धर्मों को न भी मानें, किन्तु) सभी वस्तुओ में एक प्रकार की 'अस्ति' प्रतीति को उत्पन्न करनेवाला 'अस्तित्व' नाम का धर्म उन्हें भी मानना ही पड़ेगा, किन्तु ऐसा मानने पर द्रव्यादि तीन पदार्थों में ही सत्त्व प्रतीति के लिए सत्ता' जाति की कल्पना व्यर्थ हो जाएगी। अगर अस्तित्व धर्म को प्रतिव्यक्ति भिन्न मानें तो फिर इस प्रकार के अस्तित्व की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि सत्ता' जाति एवं तत्तद्वयक्तिगत तद्वयक्तित्व (रूप स्वरूपसत्ता) से ही 'सत्प्रतीति' उपपन्न हो जाएगी। जो कोई ‘अस्तित्व' को वस्तुओं का स्वरूप ही मानते हैं, उनके मत में भी 'सत्ता' जाति की कल्पना व्यर्थ नहीं है, क्योंकि (बिना सत्ता जाति माने) भिन्न रूप से प्रतीत होनेवाले द्रव्यादि तीन पदार्थों में एक आकार की सत्त्व की प्रतीति नहीं हो सकेगी। अस्तित्व की कल्पना भी व्यर्थ नहीं है, क्योंकि अपने अपने व्यक्तिगत स्वरूप (अस्तित्व) से शून्य वस्तुओं में सत्ता जाति का समवाय भो सम्भव नहीं है, अतः सत्ता जाति और सभी प्रकार की वस्तुओं में 'अस्ति' प्रतीति का कारण अस्तित्व, इन दोनों को ही मानना आवश्यक है। - द्रव्य से लेकर विशेष तक के पांच पदार्थों के साधर्म्य का उपपादन करते हैं । 'समवायित्व' शब्द का अर्थ है समवाय रूप सम्बन्ध, (अर्थात्) समवाय सम्बन्ध से कहीं For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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