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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [उद्देश न्यायकन्दली वस्थितिः, पृथग्गमनयोग्यता, सा ययोर्नास्ति तावयुतसिद्धौ, तयोर्यः सम्बन्धः स समवायः, यथाकाशद्रव्यत्वयोरिति । अयुतसिद्धयोः सम्बन्ध इत्युच्यमाने धर्मस्य सुखस्य च यः कार्यकारणभावलक्षणः सम्बन्धः, सोऽपि समवायः प्राप्नोति, तयोरात्मैकाश्रितयोर्युतसिद्धयभावात् । तदर्थमाधाऱ्यांधारभूतानामिति पदम्, न त्वाकाशशकुनिसम्बन्धनिवृत्त्यर्थम्, अयुतसिद्धपदेनैव तस्य निवत्तितत्वात् । एवमप्याकाशस्याकाशपदस्य च वाच्यवाचकभावः समवायः स्यात्, तन्निवृत्त्यर्थमिहप्रत्ययहेतुरिति । वाच्यवाचकभावे हि तस्माच्छब्दात् तदर्थो ज्ञायते न त्विहेदमिति । आधा-धारभूतानामिहप्रत्ययहेतुरिति कुण्डबदरसम्बन्धो न व्यवच्छिद्यते, तदर्थमयुतसिद्धानामिति । _अत्र केचिदयुतसिद्धिपदं विकल्पयन्ति-किं युतौ न सिद्धौ ? आहोस्विदयुतौ सिद्धौ ? यदि युतौ न सिद्धौ, कस्तयोः सम्बन्धः, धम्मिणोरभावात् । अर्थात् पृथक् सिद्धि का अर्थ है दोनों में परस्पर एक दूसरे को छोड़कर जाने की यह 'योग्यता'। यह जिन नित्य दो वस्तुओं में नहीं है, उनका सम्बन्ध भी समवाय है, जैसे आकाश और द्रव्यत्व का अगर इतना ही कहें कि "अयुतसिद्ध दो वस्तुओं का सम्बन्ध ही समवाय है" तो पुण्य और सुख इन दोनों का जो कार्यकारणभाव सम्बन्ध है, उसमें समवाय लक्षण की अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि वे दोनों केवल आत्मा में ही रहने के कारण युतसिद्ध नहीं हैं, अतः समवाय के लक्षणवाक्य में "आधाधिारभूतानाम्" यह पद देना आवश्यक है। किन्तु बाज पक्षी और आकाश के संयोग में अतिव्याप्ति वारण के लिए "आधाधिारभूतानाम्” यह पद नहीं है । क्योंकि इस अतिव्याप्ति का वारण 'अयुत सिद्ध' पद से ही हो जाता है। इसी प्रकार आकाश पद और आकाशरूप अर्थ इन दोनों के वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध में अतिव्याप्ति वारण के लिए प्रकृत समवाय लक्षण में इहप्रत्ययहेतुः यह पद दिया गया है। क्योंकि आकाश पद से आकाशरूप अर्थ को हो प्रतीति होती है। इससे यह प्रतीति नहीं होती कि 'आकाशरूप अर्थ में आकाश पद है' या 'आकाशपद में आकाशरूप अर्थ है। (प्रकृत समवाय लक्षण में) 'आधाधिारभूतानाम्' एवं 'इह प्रत्ययहेतुः' इन दोनों पदों का प्रयोग करने पर भी कुण्ड और बदर के संयोग सम्बन्ध में अतिव्याप्ति नहीं हटती है, अतः 'अयुतसिद्धानाम्' यह पद है । ___यहाँ कुछ लोग अयुतसिद्ध पद के अर्थ के प्रसङ्ग में इन विरुद्ध पक्षों को उठाते हैं कि अयुतसिद्ध पद का (१) 'युतौ न सिद्धौ' एवं 'अयुती सिद्धौ' इन दोनों में कौन सा विग्रह प्रकृत में इष्ट है ? इनमें प्रथम पक्ष तो इस लिए ठीक नहीं है कि प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों अगर असिद्ध हैं तो फिर यह समवाय सम्बन्ध For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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