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'न्याय' शब्द का प्रयोग बड़ी सूझबूझ के साथ किया है। फलतः परवर्ती काल में गङ्गे. शोपाध्याय से पहले न्याय और वैशेषिक दोनों सिद्धान्तों के निरूपण के लिए शिवादित्य ने 'सप्तपदार्थी' नामक ग्रन्थ की रचना की। केशवमिश्र की 'तर्कभाषा' गङ्गशोपाध्याय के परवर्ती काल की रचना है । श्रीधर के परवर्ती श्रीवत्स तथा वल्लभाचार्य ने भी प्रशस्तपाद पर रची गयी अपनी व्याख्याओं के नामों में 'न्याय' शब्द को सम्बद्ध किया है । श्रीधराचार्य की व्याख्या को अधिक स्पष्ट करने के लिए पद्मनाभ मिश्र ने 'न्यायकन्दलोसार' और जैन पण्डित राजशेखर ने 'न्यायकन्दलीपञ्जिका' नामक टीकाओं की रचना की है।
न्यायकन्दली व्याख्या की विशिष्टता के निदर्शन के लिए अधोलिखित विषय अवलोकनार्ह हैं-१. महोदय शब्द की व्याख्याएँ (६ पृ०), श्रेयः सम्बन्ध में मण्डनमत का खण्डन (१६ पृ०),; बौद्धों के अर्थक्रियाकारित्व' का खण्डन (३३ पृ०), अयुत सिद्ध पदार्थ का विचार (३७ पृ०), उद्योतकर के मत का खण्डन (७१ पु०), शरीरारम्भ से कारणतो का विचार (८३ पृ०), अनुमानाङ्ग के सम्बन्ध में बौद्धों के मत का खण्डन १८४ पृ०), अन्त:करणत्व का साधन (२१८ पृ.), प्रदेशवृत्तित्वका व्याख्यान (२४७ पृ०), द्वित्व की उत्पत्ति इत्यादि का निरूपण (२९५-३१३ पृ.), सत् अथवा असत् की कारणता का विचार (३३६ पु०), विपर्यय का समर्थन (४३० पृ.), निर्विकल्पकसाधन (४४६ पृ०), युक्तों की व्याख्या (४६५ पृ.), 'यदनुमेयेन' की व्याख्या (४८१ पृ.), 'विधिस्तु की व्याख्या (४६१ पृ.), भाष्य की व्याख्या (५०३ पृ.), 'आम्नायविधातणाम्' को व्याख्या पर विचार (६२७ पृ.) इत्यादि ।
प्रशस्तपाद की इस व्याख्या के महत्त्व के कारण वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के अनुसन्धान संस्थान ने अपने अन्यतम अनुसन्धान सहायक श्रीदुर्गाधर झा को हिन्दी अनुवाद करने का कार्य सन् १९६० में सौंपा । न्याय-वैशेषिक दर्शन के उद्भट विद्वान् श्रीझा ने इस गुरुतर कार्य का निर्वाह ग्रन्थग्रन्थिभेदपूर्वक सफलता के साथ किया। सन् १९६३ में इस ग्रन्थ का प्रकाशन अनुसन्धान संस्थान से किया गया। इस अनुवाद को उपादेयता का भान इसी से होता है कि कुछ ही वर्षों में ग्रन्थ की सभी प्रतियां विक्रीत हो गयीं। न्यायकन्दली के पुनःप्रकाशन के लिए जिज्ञासुओं के द्वारा कई वर्षों से निरन्तर प्रार्थना की जाती रही है। फलतः न्यायकन्दलो सहित प्रशस्तपाद की हिन्दी व्याख्या का यह संशोधित द्वितीय संस्करण जिज्ञासुओं और विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत है । अनुसन्धान संस्थान के अन्यतम अनुसन्धान सहायक डॉ० उमाशंकर त्रिपाठी ने इस ग्रन्थ का संशोधन कार्य बड़ी तत्परता के साथ किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह जिज्ञासुओं का उपकारक और विदज्जनों को मनोमोदकर सि
वाराणसी ) भागीरथप्रसाद त्रिपाठी 'वागीश शास्त्री' मकरसंक्रान्ति: २०३४ वै.'
निदेशक, (१४-१-७८ ई. शनिवार ) )
अनुसन्धान संस्थान
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