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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जैनों की तत्त्वसमीक्षा वैशेषिक पदार्थ निरूपण से प्रभावित है। मिलिन्दप्रश्न जैसे प्राचीन बौद्धग्रन्थों में वैशेषिक दर्शन का बारम्बार उल्लेख हुआ है। वेद और ईश्वर को प्रमाणकोटि में न रखे जाने के कारण बौद्धों में वैशेषिक सूत्रों के प्रति विशेषतः समादर की दृष्टि बनी प्रतीत होती है। वैशेषिकों के लिए 'वैशेषिका अर्धवैनाशिकाः' की प्रसिद्ध उक्ति भी उक्त बात को पुष्ट करती है। प्रशस्तपाद ने 'पदार्थधर्मसंग्रह' नामक अपने स्वोपज्ञ ग्रन्थ में वैशेषिक दर्शन के तत्त्वों के निरूपणार्थ तथा 'अर्धवैनाशिकाः' की लोकधारणा के निराकरणार्थ महनीय कार्य किया है। वैशेषिक दर्शन की सेश्वरता को प्रतिष्ठापित करने का श्रेय प्रशस्तपाद को ही प्राप्त है। पदार्थधर्मसंग्रह की अपनी सर्वाङ्गपूर्णता के कारण वैशेषिक दर्शन पर रचित रावणकृत भाष्य लुप्त हो गया । इस की विशिष्टता तथा महनीयता इसी से समझी जा सकती है कि 'संग्रह होते हुए भी परवर्ती आचार्यों ने इसे भाष्य के रूप में मान्यता प्रदान की है। प्रशस्तपाद ने कणाद मुनि को नमस्कार किया है । सूत्रों का आधार लेकर उन्होंने कुछ स्थलों पर व्याख्या की है । 'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' सूत्र के 'धर्मम्' का आधार लेकर अपने ग्रन्थ का नाम 'पदार्थधर्मसंग्रह' रखा है । चतुर्थ सूत्र 'धर्मविशेषणप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम्' के आधार पर (१५ पृ० पर) इस प्रकार लिखा है-'द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः' (१५ पृ.) 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः' सूत्र के आधार पर उन्होंने 'ईश्वर' शब्द जोड़ते हुए लिखा-'तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद् धर्मादेव' (पृ० १८) । कणाद के सूत्रों का आधार लेने पर भी 'पदार्थधर्मसंग्रह' स्वतन्त्र ग्रन्थ है, व्याख्या ग्रन्थ नहीं । इसके अतिरिक्त इसमें कई मौलिक उद्भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं । परमाणुवाद, प्रमाण, २४ गुण तथा जगत् की उत्पत्ति एवं विनाश का विशद और प्रामाणिक विवेचन यहाँ मिलता है। न्यायदर्शन के भाष्यकार वात्स्यायन ने अपने भाष्य में 'पदार्थधर्मसंग्रह (प्रशस्तपाद भाष्य) से सहायता ली है। अनीश्वरवादी बौद्धों पर इसकी प्रतिक्रिया हई और बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु ने प्रशस्तपाद द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का खण्डन करने की चेष्टा की। प्रशस्तपाद के 'पदार्थधर्मसंग्रह' पर छठी से सोलहवीं शताब्दी तक व्याख्याएँ लिखी गयीं। छठी शताब्दी में व्योमशिवाचार्य ने 'व्योमवती' नामक व्याख्या लिखी। दसवीं शताब्दी में दो प्रौढ व्याख्याएँ उदयनाचार्य तथा श्रीधराचार्य द्वारा रची गयीं-१.किरणावली, एवं २. न्यायकन्दली । उदयनाचार्य ने वैशेषिक दर्शन पर 'लक्षणावली' नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की भी रचना की है। 'व्योमवती' तथा 'किरणावली' की अपेक्षा 'न्यायकन्दली' अधिक प्रौढ एवं विशद व्याख्या है । इसमें कई स्थापनाएँ नवीन हैं। तम के आरोपित नील रूप मानने के सिद्धान्त के उपज्ञाता के रूप में श्रीधराचार्य की प्रसिद्धि है। रावणकृत वैशेषिक दर्शन के भाष्य का नाम 'वैशेषिक कन्दली' (वैशेषिककटन्दी) था। अधिक सम्भव है कि श्रीधराचार्य ने रावणभाष्य की स्मृति को जगाये रखने के साथ साथ अपनी व्याख्या की प्रसिद्धि के लिए उसका नामकरण 'कन्दली' किया। 'वैशेषिक' के स्थान पर श्रीधर ने For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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