SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इस साक्षरोमत्रः। अष्ट लक्षंजपः। तिलेरशसहस्रेजुहुयात्।अथ पूजा।पूर्वक्तिमूल दुर्गा पीठ समावा व समर्च येत्। जनैःप्रथमावृतिः। अंदुर्गापै। इंवर मूर्ति न्याऊं आर्याये। एंकनक प्रभायै। कृतिका ये अंअभयप्रदाय औं कन्या ये। अःस्वरूपिरोये।एवंदिती यावृत्तिः।यंचक्रायरिंशंखाय लेखगायावखेटाया शेवाणा यषिधनुषेसंशूलायाहंकपाला या इतितृतीयावृति इंद्रादिभिवतुर्थी। वजादिभिःपंचमी।अयप्रयोगः।वश्येतिल होमेन नरान्नर पतीनविा सिदार्जु हुयान्मंत्रीरोगान्मुच्येततत्क्षणात्पनै र्दुत्वाजयेच्छन्दूर्वाभिःशांतिमा नुयात्।पालाशकुसमैः पुष्टिंधान्यै धाय॑श्रियं लुमेन्। काकं पक्ष कुंतेहोमे विद्वेषंतनुते नृणां। मरीचहो मागमरणरिपुरा नोति सर्ववाासदारिचोरभूताद्यान ध्यावा देवी विनाशयेत्।अथवनदुर्गा विधान नुच्यते।आरण्यकऋषिः अनुष्टुप्छंदः। वनदुर्गा देवता हूं बीजोखाहाश |क्तिः उतिरपुरुषि हृत् । कि खपिपिशिराम यंमेसमुपस्थितं शिखा।यदिशक्यमशक्यंवा कवच तन्मेभगवति नत्राशनषस्वाहा अलीध्यान। हेमप्ररव्या मिंदुःखंडात्त मौलिंशंखाविसमीति हस्तां त्रिनेत्री हेमात स्थापीतव लांप्रसन्नांदेवींदगाँदिव्यरूपनमामि। इत्तिमालिक ध्यानामरिशंखक पाणखेटवाणान सघनःश्लंककतर्जनींदधा नामहतोमहिषोत्तमांगसंस्थानवदूर्वासहशीश्रियेलुदुर्गा। इनिराजसंध्यानी चक्रदरखदखेटक शरकामुक मूलस For Private And Personal
SR No.020571
Book TitlePrapanchasara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGiryanendra Saraswati
PublisherGiryanendra Saraswati
Publication Year
Total Pages755
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy