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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsup Gyanmandir प्र.सं. विष्टयेत् पुनस्तृतीये वृत्ते मातृकयाँ वेष्टयेत् पुनस्त द्वहि श्वतुर संविलिख्य तत्कोणेषु ऐं क्लीं सौः ड्री मित्ये १२२ तान्वर्णान् क्रमेण विलिखेत् एवं विलिख्य धृते उक्त फलं भवति ॥ अथवागीश्वरी मंत्र प्रसंगात् मंत्र देवता प्र का शिकोक्त प्रकारेण वागीश्वरी मंत्रांतरं लिख्यते त्रिविक्रम ऋषिः गायत्री छंदः रुद्रवागीश्वरीदेवता वा बीजं स्वाहाशक्तिः सा सर्वज्ञ हृत् सीममृत ते जो मालि नित्य तृप्तिशिरः संवेदवे दि नि अनादि बोध शिखा सेव त्रिवज्ञ धराय स्वतंत्र के वच सौं नित्य मलुस शक्ति सहजे त्रिरूपिणे नेत्र सः अनंतशक्तिश्ली पहुं फट् पाशुपतास्त्राय सहस्राक्षराय अस्त्रं ध्यानं शुभ्रामांत्री क्षणां दो र्मिर्बिभ्रती फल पुस्तके वराभ ये सर्व भूषा रुद्र वागीश्वरीभजेत् ओवां श्रीं ह्रीं स् ह्यों स्वाहा इति मंत्रः पूजादिकं दशाक्षरी वागीश्वरीवत् अथ वागीश्वरी मंत्रांतरे काश्यप ऋषिः गायत्री छंदः विष्णुवागीश्वरी देवता स्फे बीजं श्री शक्तिः बीजेनैव षडंगानि ध्यान हेमाभां बिभ्रती दोर्भिः फल पुस्तक कुंमकान् अभय सर्व भूषायां विष्णुवा गीश्वरीं भजेत् ॐ श्रीं स्कैं हीनमः इतिमंत्रः वागीश्वरीमंत्रांतरं कण्व ऋषिः विराट् छेदः मु राम | ख्यासरस्वती देवता वा गीतिबीजं पुः इतिशक्तिः ऐवाचस्पते हृत् अमृतशिरः पुना शिखा लु-कवचं ९२२ For Private And Personal
SR No.020571
Book TitlePrapanchasara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGiryanendra Saraswati
PublisherGiryanendra Saraswati
Publication Year
Total Pages755
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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