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(२०३) एक्क कुडुल्ली पनहिं रुडी सई,
पञ्चहं वि जुअंजुअ बुद्धी । पहिणुए तं घरु कहि किँव नन्दउ,
. जेथ कुडुम्बउं अप्पण-छन्दउँ ॥ मूढस्य नालिअ-बढौजो पुणु मणि जि खसफसिहअउ,
चिन्तइ देइ न दम्मु न रूअउ । रइ-वस-भमिरु करग्गुल्लालिउ,
घरहिं जि कोन्तु गुणइ सो नालिउ ॥ दिहिं विद्वत्तउं खाहि बढ. नवस्य नवख:-नवखी कवि विस-गण्ठि, अवस्कन्दस्य दडवड:चलेहिं चलन्तेहिं लोअणेहिं जे तई दिहा बालि । तहिं मयरदय-दडवडर पडइ अपूरइ कालि ॥ यदेश्छुडुः-छुड्डु अग्घइ ववसाउ. संबन्धिनः केर-तणीगयउ सु केसरि पिअहु जलु निच्चिन्तई हरिणाई। जसु केरएं हुंकारडएं मुहहुं पडन्ति तृणाई ॥ अह भग्गा अम्हई तणा. माभैषीरित्यस्य मन्भीसेति स्त्रीलिङ्गम्सत्थावत्यहं आलवणु साहुवि लोउ करेइ । आदन्नहं मन्भीसडी जो सज्जणु सो देइ । गद्य दृष्टं तत्तदित्यस्य जाइटिआ - जइ रबसि जाइट्ठिभए हिजडा मुद्ध-सहाव । लोहे फुटणएण जिवं घणा सहेसइ नाच ॥ .
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