SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८५) विहलिअ-जण-अब्भुद्धरणु कन्तु कुडीरइ जोइ ।। अमूनि वर्तन्ते पृच्छ वा ॥ १०४४. इदमः आयः । ४. ३६५ । अपभ्रंशे इदमशब्दस्यं स्यादौ आय इत्यादेशो भवति आयई लोअहो लोअणई जाई सरई न भन्ति । अप्पिए दिछह मलि अहिं पिए दिहइ विहसन्ति ॥ सोसउ म सोसउ चिअ उअही वडवानलस्स कि तेण । जं जलइ जले जलणो आएणवि किं न पज्जतं ॥ आयहो दड्ढ-कलेवरहो जे वाहिउ तं सारु । जइ उठभइ तो कुहइ बह डज्झइ तो छारु ।। १०४५. सर्वस्य साहो वा । ४. ३६६ । अपभ्रंशे सर्वशब्दस्य साह इत्यादेशो वा भवति । साहुवि लोउ तडफडइ बहुत्तणहो तणेण । वडप्पणु परिपाविअइ हत्थि मोक्कळडेण ॥ पक्षे-सव्वुवि ॥ १०४६. किमः काई-कवणौ वा । ४. ३६७ । अपभ्रंशे किमः स्थाने काईकवण इत्यादेशौ वा भवतः । जइ न सु आवइ दुइ घरु काई अहो-मुहु तुज्झु । वयजु खण्डइ तउ सहि एसो पिउ होइ न मज्झु ॥ काई न दूरे देक्खइ. फोडिन्ति जे हिअडउं अप्पणउं नाहं पराई कवण घण । रक्खेज्जहु लोअहो अपणा बालहे जाया विसम-यण ॥ मुपुरिस कङ्गुहे अणुहरहि भण कज्जें कवणेण । जि जि बहुतण लहहिं ति तिव नवहि सिरेण ॥ पंक्षे For Private and Personal Use Only
SR No.020569
Book TitlePrakrit Vyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirchand Prabhudas Pandit
PublisherJagjivan Uttamchand Lehruchand Shah
Publication Year1927
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy