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१०४ तेहनी परे।
नांखे ॥४३॥ महिलाहिं निम्मगाहिव। गिरिवर गुरुप्रावि निऊंति५३ वीषयरूप जल जे जेहमां मु वीलास वा नोग हावनाव रूप ज|| झाबु ते रूपकलण। लचर तेणे आकीरण नरेलु ॥
विसय जलं मोहकलं। विलास बिन्नोअजलयरा इन्न। मद वा अहंकाररूप मगर एहवा।तरीया समुद्रप्रतेधीर पुरुषा॥४॥ , मय मयरं नत्तिन्न। तारुन्न महन्न बंधीरा ॥४॥ यद्यपी वा जोपीण घरवास वली तपे करी दुरबल थयु डे अंग नो सर्व तज्यो बे संग जेणे। तथापी संसारमा पमे॥
जवि परिचत्त संगो। तव तणुअंगो तहावि परिवम॥ स्याथी स्त्रीना संसर्ग वा कोनीपरे पके जेम नपकोशाने नुव|| मेलाप परीचयथी। ने सिंहगुफावासी साधुनी परे॥४५॥
महिला संसग्गीए। कोसा नवणू सियमूणिव्व॥४॥ समस्त ग्रंथी मुक्यो जे जेणे।सीतलनुत थयो जे प्रसांत मन जेहनु ___ सव्व ग्गंथ विमुक्को। सीई नून पसंत चित्तो॥ एहवो जे पांमे मुक्तीनां सुख ए न पांमे चक्रवृतीपणु पांमे थके हवा नीर्लोनीपणाना गुणने। पण ॥४६॥
जं पावर मुत्तिसुहं। न चकवडीवि तंलह ॥४६॥ श्लेष्म वा बलखामा पमेली जेम न धरी सके मांखी पण मुका जे आपणा सरीरने पण। वाने ॥
खेलमि पमित्र मप्पं। जहन तर महिपाविमोएन। तीम वीषयरूप श्लेष्ममां प न मुकावी सके आपणा आत्माने म्या जे मांखी जेवा। कांमेअंध नर ॥४७॥ तह विसय खेल पमिश्रानतरश्अप्पंपिकामंघो॥४॥