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१०३ कंद्रप वा मनमथनां बाणनु द्रष्टी क्षोने मृगाक्षी वा मृगलो प्रसर तेहनो समोह एहव।। चनानां ॥३॥
वम्मह सर पसरो हे। दिछि बोहे मयबीणं ॥३॥ परीहर वा तज ते कारण माटे तेहनी। द्रष्टी जेम द्रष्टीवीष सर्प तीम॥
परिहरसु तन तासिं। दिहिं दिछीविस स्सव ॥ सर्पणी समान रमणी वा स्त्री तेह हेयात्मा ताहरा चारीत्र गुणरू नां नयणबांग।
पजे प्राण तेहने नासपमामसे४० अहिस्सरमणि नयणबाणा। चरित्तपाणे विणासंतिधा सिद्धांतरूप जे समुद्र तेहनो पार विसेषे इंदिन झीतेलो पण सू गामी होय तोपण।
रो होय तोपण ॥ सिवंत जलहि पारंगवि। विजई दिनवि सूरोवि॥ मन थीर होय तोपण एहवा जुवती वा स्त्रीरूपणी पीसाचणी निर पण बनाई।
क्षुद्र वा माठीथी ॥४१॥ . दढचित्तोवि लिऊ। जुवा पिसाईहि खुड्डाहिं॥४॥ मीण मांखण वीद्रवे वा ढी जेम ते मीण मांखण जाय अग्नि लां थाय।
ना समीपमां ॥ मयण नवणीय विलन।जह जाय जलण संनिहाणंमि।। तीम स्त्रीना समीप जवाथी। ढीलु थाय मन मुनिनु पण तो
बीजानुं सुं कहेवू ॥१॥ तह रमणि संनिहाणे। विदव मणो मुणीणंपि॥४॥ नीची गती ने जेहनी पाणी सही जोवा योग्य मंथरगतिई स त ।
हीत एहवी ॥ नीअंगमाहिं सुपनहराहिं। नप्पिड मंथर गईहिं॥ स्त्री अने नीम्नगा वा नदि परवत मोहोटा पण नेदे वा नांगी|
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