SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रुद्रदामा प्रथम का जूनागढ़ शिलालेख 5. 6. 7. 8. 9. 10. www. kobatirth.org 1. 2. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 65 मार्ग शीर्ष कृष्ण प्रतिपदा को.... बरसते मेघों ने (जब ) धरती सागर सी कर दी तब ऊर्जयत (रैवतक) पर्वत की सुवर्णसिकता, पलाशिनी आदि नदियों का वेग अधिक बढ़ जाने से, सेतु के परिमाणानुरूप प्रतिकार किये जाने पर भी पर्वत शिखर, वृक्ष, तट, अट्टालिका, ऊपरी मंजिलों, द्वार, शरण के योग्य ऊंचे (सुरक्षित) स्थानों को ध्वस्त करने वाले प्रलय काल जैसे अत्यंत वेगशाली वायु से मथे गये जल के द्वारा फेंक कर जर्जर एवं खण्डित कर दिये गये ... पत्थर, वृक्ष, झाड़ियां तथा लता वितान फेंक दिये गये और नदी के तल तक को उघाड़ (खोल) दिया गया। 420 हाथ लम्बी, इतनी ही चौड़ी (तथा) 75 हाथ गहरी दरार से (तालाब का ) सारा जल निकल गया ( और सुदर्शन का वह खाली तल) रेगिस्तान के समान दुर्दर्शन ( अशोभन ) हो गया। (लोक अथवा प्रजा) के लिये मौर्य राजा चन्द्रगुप्त के राष्ट्रिय वैश्य पुष्यगुप्त ने (इसे) बनवाया। अशोक मौर्य के लिये यवनराज तुषास्फ ने ( वहां) रहकर (अपनी देखरेख में इसे ) नालियों (नहरों) से अलंकृत कर दिया। इनके द्वारा बनवायी गयी तथा राजा के अनुरूप (विशाल पैमाने पर सुशोभमन तट एवं नहरों से निर्मित) सम्पन्न (उस तडाग में) वह ( उपर्युक्त विस्तृत एवं गहरी ) दरार पड़ जाने पर ( वहां ) दिखाई देने वाली नहर तथा विशाल बांध ( अदृश्य हो गया ) । गर्भकाल (जन्म से पूर्व) से अबाध रूप से समुन्नत राजलक्ष्मी को धारण करने के गुण के कारण (सिसे) सारे वर्ण (की प्रजा) ने एक साथ पहुंचकर (अपनी रक्षा के लिये स्वामी बनाया, युद्ध के अतिरिक्त (अवसर पर ) पुरुष वध से विमुख होने की प्रतिज्ञा को आजीवन सत्य सिद्ध कर (पालने वाले, सामने आये हुए समान शक्तिशाली) शत्रु पर प्रहार करने वाले तथा गुणहीन (कायर) शत्रु पर दया करने वाले; स्वयं आकर चरण पर गिरने वाले (अधीनस्थ होने वाले अथवा शरण में आने वाले) जन को (न मारकर उसे) जीवन तथा शरण' देने वाले; डाकू, सर्प For Private And Personal Use Only एक और विलासिनी नदी का उल्लेख स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ लेख (श्लोक २८) में हुआ है। मिलाइये - असौ शरण्यः शरणोन्मुखानाम्। रघुवंश, 6/21
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy