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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 306 प्राचीन भारतीय अभिलेख 12. 11. पदतल में शत्रुओं के केश, भुजाओं पर कठोर प्रत्यञ्चा के आघात का चिह्न जिसके प्रसाधन ज्ञात थे तथा रत्नपुष्प, हार, ताटंक (बाली), नूपुर, माला, सुवर्ण-कङ्गन आदि तो सेवकों की स्त्रियों के आभूषण थे (उसके नहीं)। जिसकी भुजलता के विलास से गति पाये हुए तीरों ने वीरों के वक्ष विदीर्ण कर दिये। (और उस) रण के तीर्थ के वैभव से वह दिव्य शरीर से शोभित था। मुग्ध-सिद्ध युगल पूर्ववत् यह देखकर परेशान हो गया कि आलिंगत देवांगना के स्तनतट पर अंकित केसर के पत्र से इसका वक्ष अंकित है। 12 शत्रुओं के विनाश के क्रीड़ा कर्म में 13. इस मुस्कुराते मुख वाले नप के खड्ग दान में दोनों (भुजा) का अद्भुत कौशल रहा। एक शत्रु को दुःख देने में लगा रहा तो अन्य अपने मित्रों को प्रसन्न करने में। एक ने मित्रों को हार पहनाया तथा दूसरे ने शत्रुओं पर प्रहार किया। 13 जिसकी महारानी के चरण, अपने तथा पराये (शत्रुओं के) अन्तःपुर की वधुओं के 14. सिर के रत्नसमूह की किरणशृंखला से मुस्कुराते रहते हैं। वह कान्ति की निधि, साध्वी के व्रत का पालन करने से नित्य उज्ज्वल यश पाने वाली, तीनों लोक में सबसे मनोज्ञ आकृति से सम्पन्न तथा नाम से यशोदेवी थी। 14 उस त्रिलोक के स्वामी तथा उस देवी से राजा विजयसेन उत्पन्न हुआ जिसने बालक्रीडा के क्रम को शत्रुसेना के विनाश से उज्ज्वल बना लिया था। चारों सागर की करधनी से वलयित सीमा वाली पृथ्वी पर विशेष विजय प्राप्त करने वाले कुल से वह सम्पन्न था। 15 श्रेणि के खेड़ों अथवा दलों में उन नृपों की गिनती कौन करे जो इसके नित्य रण में जाने पर जीते गये अथवा मारे गये। यह प्रतिदिन रण में लगा रहता था। इस जगत् में 16. अपने चन्द्र वंश के पूर्व पुरुष 'राज' शब्द को पाया। (वस्तुतः राजा तो यही था।) 16 15. For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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