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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 प्राचीन भारतीय अभिलेख सकता है। देवप्रिय के विजित राज्य में जो भी वनवासी हैं उन पर भी वह कृपा करता है, उन्हें बोध देता है। देवप्रिय का अनुताप और प्रभाव उन्हें बताया जाना चाहिए। क्योंकि वे (बुरे कर्म से) लज्जा करें और प्राणदण्ड से बचें। देवों का प्रिय चाहता है कि सब प्राणियों की अहिंसा (कल्याण) संयम, समानता और सौहार्द्र का व्यवहार हो। देवप्रिय धर्म-विजय को ही मुख्य विजय मानता है और देवों के प्रिय ने वह धर्म विजय प्राप्त की। समस्त सीमावर्ती (राज्यों) में 9. छ: सौ योजन तक जहां अन्तियोक नामक यवन राजा और उस अन्तियोक से परे चार 4 राजा तुरमय नामक, अंतकिनि नामक, मग नामक, अलिक सुंदर नामक और नीचे चोड, पाण्ड्य और ताम्रपर्णी तक। इसी प्रकार यहां राजा के राज्य में यवन, कम्बोज, नाभक, नाभक्ति, 10. भोज, पितनिक, आन्ध्र और पुलिंदों में सब दूर देवप्रिय का जहां तक भी धर्मानुशासन है और जहां देवप्रिय के दूत नहीं पहुंचते हैं वे भी देव के प्रिय का धर्म-वृत्त, विधान और धर्मानुशासन सुनकर धर्म का आचरण करते हैं और आचरण करेंगे। जो इस प्रकार सर्वत्र विजय उपलब्ध होती है-सर्वत्र पुनः 11. प्रीतिरस वाली वह विजय है। धर्म विजय में प्रीति प्राप्त होती है। परन्तु वह प्रीति बहुत लघु होती है। देवों का प्रिय पारलौकिक को ही महाफल मानता है। इसलिए यह धर्मलिपि लिखवाई गयी। क्योंकि मेरे पुत्र प्रपौत्र (तक) नयी विजय को भी विजय जैसी न माने। नयी विजय करें (भी) तो क्षमा और लघुदण्डता में रुचि लें और उसे ही विजय मानें। 12. जो धर्म विजय है। वह इहलौकिक है और पारलौकिक है और सब वही अतिरति हो जाए जो धर्मरति है। वही इहलौकिक और पारलौकिक है। For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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