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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 250 प्राचीन भारतीय अभिलेख 12. अथवा अपनी सुकृति की गणनाविधि से यह अन्य राम था। 17 जिस कुलभूमि के शासक के विनाश में लीन शत्रु सैन्य रूपी सागर मंथन से परिवृद्ध तथा प्रकट शत्रु रूपी लाजा समूह को अपने प्रतापानल में होम दिया। सुधा सी शोभन् परिवृद्ध अद्वितीय गति से एवं प्रशांत प्रवृद्ध गुणों से धर्म के सन्तति के यश की अपर उद्गम लक्ष्मी 13. नीति से इसकी पुनर्भू (पुनर्विवाहित) हो गयी। जिसकी पालनविधि से प्रसन्न तापसवृन्द ने, गुरुजनों ने स्नेह से, सेवकों ने भक्ति से और नीति में विदग्ध शत्रु समूह ने-अपने जीवन की इच्छा वाले सभी ने जिसकी आयु असीम करने के लिये स्वयं को उसके अधीन कर दिया, अपनी कोष सेवा समर्पित कर दी। क्योंकि वह विधाता के समान उसका पात्र था। 19 यह सत्य है कि जब तक विश्व वेद 14. के अनुशासन से फलदाता होता है, सैकड़ों नृपों के लिय असाध्य कार्यों का यह फलभोक्ता रहा। कलियुग से अछूता, कीर्ति का स्वामी सज्जनों के सत्कर्म से ही हुआ। इसकी लक्ष्मी की अभिवृद्धि अद्भुत ही है। 20 शत्रुओं के विशाल वंश रूपी (बांस) को कोपानल से जलाते हुए जिसके प्रताप से जलराशि (समुद्र) को पीने वाले (बादल) भी अब अधिक प्यासे लगने लगे। 21 बचपन से ही विविध विद्या 15. एवं अद्भत कर्म से कुमार (कार्तिकेय) ने अपनी अस्त्र वृत्ति से प्रबल असुरों को भी परास्त कर दिया। 22 सारी सम्पदा से युक्त जिस नृप के प्रभुत्व से (आकृष्ट होकर) अक्षपटल विधाता ने (उसका) मुख देखकर ही सारी सम्पदा उसके नाम (रेकार्ड) में लिख दी। 23 उस तेजस्वी की अबाध बढ़ती शिखा सी कीर्ति सूर्य को जीतकर जगत् के स्वामी की पत्नी रूप में 16. जिसके चित्त में पहुंच गयी और जिसने सागर पार कर लिया लिया। 24 रानियों की यश वृत्ति के लिये उस राजा ने नरकद्विष (विष्णु) का For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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