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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 232 प्राचीन भारतीय अभिलेख 73. भूमिदाता स्वर्ग में रहता है। इस दान को तोड़ने अथवा तोड़ने का अनुमोदन करने वाला इतने ही वर्ष नरक में रहता है। 54 जो दान की हुई भूमि का अपहरण करते हैं-वे विन्ध्य के निर्जल अरण्य में सूखे (वृक्ष की) खोखर के निवासी काले सांप बनते हैं। 55 74. अग्नि की प्रथम संतति सुवर्ण, विष्णु की पृथ्वी तथा सूर्य की पुत्रियां गायें हैं। जो स्वर्ण, गो अथवा भूमिदान करता है उसे त्रिलोक दान (का फल) होता है। 56 75. सगर आदि बहुत से नृपों ने भूमि का भोग किया। जब जिसकी भूमि रही, तब तब उसे ही फल मिला। 57 राजन्! स्वयं अथवा अन्य के द्वारा प्रदत्त (भूमि) की सयत्न रक्षा करनी चाहिये। हे राजन। भूमिदान की अपेक्षा उस दान का पालन करते रहना अधिक श्रेष्ठ है। 58 76. इस प्रकार कमलपत्र पर जलबिन्दु के समान लक्ष्मी एवं मानव जीवन को चञ्चल समझकर अपनी समझकर अत्यंत निर्मल मन से पुरुष को परकीर्ति का विलोप नहीं करना चाहिये। धर्म विभाग के अध्यक्ष वालभ कायस्थ वंश में उत्पन्न सेनभोगिक ने इसे लिखा जो श्रीमान् अमोघवर्षदेव के चरणकमल की कृपा से जीविका प्राप्त करने वाले वत्सराज का पुत्र गुणधवल है। राजा के द्वारा अपने मुख से दिये गये आदेश पर दूतक महत्तक गोराषक। मंगल हो-महालक्ष्मी। For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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