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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९. आत्म-रमणता मन को नियंत्रित कर आत्मा आंतरजीवन का भोक्ता बनता है और होता है सहजानंद का एकमेव रसिया! -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी पादरा दिनांक : ११-३-१९१२ मन मतवाले को आत्मा के साथ मदैव जुड़ (बाँध) कर रखना चाहिए। उसे व्यर्थ में ही कहीं भटकने के लिए मुक्त नहीं छोड़ना चाहिए । कारण उसके यो जहाँतहाँ भटकने से मनः संयम की सिद्धि कदापि नहीं होती। आत्मा की आज्ञा के बिना मन जब तक म्वच्छंदता से भटकता रहता है तबतक संकल्प की सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसा दृढ संकल्प कर कि मन आत्मा के आदेशानुसार ही अपना व्यवहार करें उसको बार बार उपदेश....प्रतिबोध देवें कि जिससे उसमें व्यर्थ के विचार प्रकट नहीं होवें। अपने अधिकागनुसार मन में धार्मिक देव गुरु के विचारों को निरंतर उजागर कर....प्रकटित कर उसके प्रति उसमें रसज्ञता पैदा करनी चाहिए। मन में उसके लिए प्रेमभाव की तरंगे तरंगित हो जाय ऐसा कुछ करना चाहिए। देव व गुरु के प्रति शुन्द्र प्रेम होने पर मन अहर्निश उसी में रमणता करता हैं और परिणामस्वरूप निरंतर उसकी शुद्धि होती रहती है। एक स्थिर उपयोग द्वाग आत्मा के असंख्य प्रदेशों में रमणता करते रहने से मन उसमें लीन-तल्लीन हो जाता है। फलतः आनन्द रस की धारा प्रवाहित होती है। आत्मा के असंख्य प्रदेशों में रमणता करने की जब प्रेम-भावना जागृत होती है तब बाह्यरूप में नीरसता अनुभव होती है और आत्मा में शुद्ध प्रेम की रमणता प्रकट होने से मोह-प्रकृति का प्राबल्य अत्यंत क्षीण हो जाता है। हाँलाकि द्रव्यानुयोग के तीव्र उपयोग के बिना असंख्य प्रदेशों में रमणता For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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