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पञ्चाशक
वा तपः
मूलम्
॥ ९३२ ॥ एए अवऊसणगा इट्ठफलसाहगा व सट्टाणे । अप्णत्थजुया य तहा विष्णेया बुद्धिमंतेहिं ।। ९३३ ॥ इंदियविजओवि | तहा कसायमहणो य जोगसुद्धीए । एमादओवि णेया तहा तहा पंडियजणाओ ॥९३४|| चित्तं चित्तपयजुयं जिणिंदवयणं असेससत्त
हापंचाशकम् हियं । परिसुद्धमेत्थ किं तं जंजीवाणं हियं णत्थि? ॥ ९३५ ॥ सव्वगुणपसाहणमोणेओ तिहिं अट्ठमेहिं परिसुद्धो। दंसणनाणच- रित्ताण एस रेसिमि सुपसत्थो ॥९३६ ।। एएसु वट्टमाणो भावपवित्तीऍ बीयभावाओ। सुद्धासयजोगेणं अणियाणो भवविरागाओ
॥ ९३७ ।। विसयसरूवणुबंधेहिं तह य सुद्धं जओ अणुट्ठाणं । णिव्वाणंगं भणियं अण्णेहिवि जोगमग्गमि ॥ ९३८ ॥ एयं च विसयसुद्धं एगतेणेव जं तओ जुत्तं । आरोग्गबोहिलाभाइपत्थणाचित्ततुल्लति ।। ९३९ ॥ जम्हा एसो सुद्धो अणियाणो होइ भावियमईणं । तम्हा करेह सम्मं जह विरहो होइ कम्माणं ॥ ९४० ॥ तवोविहिपयरणं समत्तं ॥ १९ ॥
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॥इइ सिरिहरिभदायरियरइयं पंचासयं समत्तं ॥
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॥ ५८ ॥
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