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आ
आ' वर्णमाला का एक स्वर, कण्ठस्थानीय 'अ' स्वर का दीर्घ मात्रा वाला रूप, व्याकरण में 'सुस्पष्ट' पहचान कराने की दृष्टि से 'आकार' के रूप में भी प्रयुक्त - आई ऊ ए ओ इति दीघा नाम, क. व्या. 5. आ अ., पदपूरणार्थक निपा., विशिष्ट अर्थ का बोधक न होकर वचनों के अलङ्करणमात्र के लिए प्रयुक्त - तत्थ यदानमञ्जतीति यं आ नं मञ्जतीति पदच्छेदो, आ ति निपातमत्तं, सद्द. 3.891. आ' अ०, उप. [आ], क्रि. प. अथवा ना. प. से पूर्व में अनेक अर्थों को सूचित करने वाला एक उप., प्रमुख सङ्केतित अर्थ - आसद्दो भिमुखीभावे उद्धकम्मे तथेव च, मरियादाभिविधिसु परिस्सजन पत्तिस, इच्छायं आदिकम्मे च निवासे गहणे पि च, अव्हाने च समीपादिअत्थेसु पि पवत्तति, सद्द. 3.880; निवासाव्हानगहणकिच्छे सत्थनिवत्तिसु. अप्पसादासि सरणपतिहाविम्हयादिसु, अभि. प. 1181; क. अभिमुखीभाव, किसी की ओर उन्मुख होना, उपस्थिति -- किं नु खो महासमणो नागच्छतीति? महाव. 33; दहरस्स युविनो चापि, आगमो च न विज्जति, जा. अट्ठ. 4.95; ख. ऊर्ध्वकर्म, ऊपर की ओर - तुरिता पब्बतमारुहुँ, सु. नि. 1020; आरुहन्तो पुनप्पुन, सद्धम्मो. 188; तस्स किर महापथविया एकयोजनतिगावुतप्पमाणं नभं पूरेत्वा आरोहनकालो ..., जा. अठ्ठ. 1.79-80; ग. मर्यादा, पृथक्करणीय या उपसंहारक सीमा, तक, जहां तक है वहां तक - तेसु येन केनचि परितित्तो आकण्ठप्पमाणं भुजित्वा ठितो, अ. नि. अट्ठ. 3.71; आ पब्बता खेत्तं, सद्द. 3.703; जब तक कि - तत्थ अनिष्फन्नताति महाराज, याव अत्तनो इच्छितं न निष्फज्जति, ताव पण्डितो अधिवासेय्य, जा. अट्ठ. 6.211; घ. अभिविधि, आरम्भिक सीमा, 'से', 'को लेकर', 'में से', 'से दूर' (प. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ वियोजक निपा. के रूप में)- आकुमारं यसो कच्चायनस्स, सद्द. 3.880; आ सहस्सेहि पञ्चहीति, जा. अट्ठ. 7.37; आपत्तपुत्तेहि पमोदथव्होति, जा. अट्ठ. 4.146; आपुत्तपुत्तेहीति याव पुत्तानम्पि पुत्तेहि पमोदथ ..., तदे; ङ. अधिकता, पूर्णता ङ.1. लिपटाव की पूर्णता - एतं आलिङ्गन्तो विय गाळहं पीत्वा .... जा. अट्ट. 1.271; ङ.2. प्राप्ति की पूर्णता, पूरी तरह - अहञ्चम्हि आपत्तिं आपन्नो, महाव. 219; ङ.3. इच्छा की पूर्णता - यं सो आकङ्घति विहारं वा..., महाव. 134; ङ. 4. प्रारम्भ या आदिकर्म की पूर्णता - सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया ..., अ. नि. 3(1).154; ङ.5. आमन्त्रण
आकति या अभिमुखीभाव की पूर्णता - याव आमन्तये आती, मित्ते च सुहदज्जने, जा. अट्ठ. 7.157; ङ.6. वास की पूर्णता - सम्बाधो घरावासो रजोपथो, दी. नि. 1.55; ङ.7. निकटता या समीपता की पूर्णता- बोधिसत्तो नातिदूरे नाच्चासन्ने गच्छन्तो.... जा. अट्ठ. 2.127; ङ.8. कुछ-कुछ, थोड़ा-थोड़ा- भुसो किरियं धारेतीति आधारो, सद्द. 3.709%; आकळारो, मो. व्या. 3.13; निवासाव्हानगहण किच्छेसत्थनिवत्तिसु, अभि. प. 1181. आकङ्घ पु.. [आकांक्ष], आकांक्षा करने वाला, प्रयास कर रहा, उत्सुक -... इमे चत्तारो धम्मे आकडन्तेन नत्थजकिञ्चि कातब्ब, अ. नि. टी. 3.318; पाठा. आकङ्घन्तेन, आकलक्खाकडङ्ग कवागङ्गाखागहक, जिना. 101; - सुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 3(2).109 110; - वग्ग पु., अ.नि. के दसक निपात का आठवां वर्ग, अ. नि. 3(2).109-125; अ. नि. टी. 3.315-321. आकति आ + ।कत्र का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [आकांक्षति/आकांक्षते], लालसा करता है, चाहता है, कामना करता है, अपेक्षा करता है, जरूरत महसूस करता है - यं सो आकति विहारं वा अड्डयोग वा पासादं वा हम्मियं वा गुहं वा, महाव. 134-35; - ते उपरिवत्, आत्मने. - सीसंन्हातो चयं पोसो, पुप्फमाकसते यदि, अप. 1,408; - सि म. पु.. ए. व. – सचे आकवसि, निसीदाति, म. नि. 2.372; तस्सत्थो – “पुच्छ यदि आकसि, न मे पञ्हविरसज्जने भारो अस्थि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).171; - जामि उ. पु., ए. व. - अञतित्थियपुब्बो इमस्मि धम्मविनये आकङ्घामि उपसम्पदं, महाव. 88; - न्ति प्र. पु.. ब. व. - बुद्धा पन... हेवा वा उपरि वा यं यं ठानं आकङ्घन्ति, तं सब्बं सरन्तियेव, पारा. अट्ठ. 1.120; -थ म. पु., ब. व. - सचे आकङ्घथ, भुञ्जथ, नो चे तुम्हे भुजिस्सथ, म. नि. 1.17; सचे आकडथाति यदि इच्छथ, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).101; - कडं वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - धम्मविआणमाकडं, तं भजेथ तथाविधं थेरगा. 1033; -जन्तेन तृ. वि., ए. व. - इमे चत्तारो धम्मे आकङ्घन्तेन नत्थनं किञ्चि कातब्बं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).167; - न्ता पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ब. व. - गिहीनं उपनामेन्ति, आकङ्घन्ता बहुत्तर थेरगा. 937; - मानो पु.. वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - आकडमानोति इच्छमानो, पारा. 391; - नेन त. वि., ए. व. - आकङ्घमानेन भिक्खुना पटिग्गहेतब्बानि, पारा. 352;- स्स ष. वि., ए.
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