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अच्चय
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अच्चायत
5.443; नच्चन्तवण्णाति अभिरूपवती, जा. अट्ठ. 5.444; - अभि. प. 404; - येन तृ. वि., ए. व. - एतरहि वा मम वा विराग पु., कर्म. स., राग का पूर्णरूप से अभाव - अच्चयेन..., दी. नि. 2.78; ... पितु अच्चयेन नियामकजेट्टको विरागानुपस्सीति एत्थ द्वे विरागा खयविरागो च अच्चन्तविरागो हुत्वा .... जा. अट्ठ. 4.125; ला. अ. 2. अतिक्रमण, नियमों च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).194; - वोदान नपुं.. कर्म. का उल्लंघन, अतिचार, दोष, अपराध - अच्चयो अतिक्कमे स., पूर्ण रूप से विशुद्धि- सुचिन्ति किलेसमलसमुच्छेदकरणतो दोसे, अभि. प. 1117; - यं द्वि. वि., ए. व. - .... भगवा अच्चन्तवोदानं, खु. पा. अट्ठ. 144; - संयोग पु., कर्म. स., अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हात .... दी. नि. 1.75; तत्थ अव्यवहित सातत्य, व्यवधान से रहित निरन्तरता, लगातारपन अच्चयोति अपराधो, दी. नि. अट्ठ. 1.191; अच्चयं देसयन्तीनं - गे सप्त. वि., ए. व. - कालद्धानमच्चन्तसंयोगे दुतिया यो चे न पटिगण्हाति, स. नि. 1(1).29; स. उ. प. के रूप विभत्ति होति, क. व्या. 300; सद्द. 3.581, तुल. पाणिनि, में अत्थ., थुल्ल., दुर०, नान., पाण., फल., वस्सान., हिम. 2.3.5; अच्चन्तसंयोगे चेतं उपयोगवचनं, वि. व. अट्ठ. 57%3; के अन्त. द्रष्ट.; - पटिग्गहण नपुं.. [अत्ययप्रतिग्रहण], एवंजातिके सत्तन्तपाठे अच्चन्तसंयोगत्थो सम्भवति, ख. पा. पापस्वीकरण पर क्षमा-प्रदान, पाप-निर्मोचन, क्षमादान - अट्ठ. 86; - सन्त त्रि., कर्म. स. [अत्यन्तशान्त], पूर्ण रूप स्स ष. वि., ए. व. - ... अच्चयपटिग्गहणस्स कतत्तापि त्वं से शान्ति-भाव से युक्त - न्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अम्हाकं आचरियोव, जा. अट्ठ. 5.380; - सुत्त नपुं., स. नि. अच्चन्तसन्ता पन या अयं निब्बानसम्पदा, विसुद्धि. 1.56; - के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).276-77. सन्ति स्त्री.. [अत्यन्तशान्ति], पूर्णशान्ति, निर्वाण की अवस्था अच्चरुचि अति + रुच का अद्य, प्र. पु., ए. व., - अच्चन्तसन्ति वुच्चति अमतं निब्बानं, महानि. 52; - सील ___अत्यधिक प्रकाशित या सुशोभित हुआ, अतिरोचति के अन्त. त्रि., ब. स., अनैतिक, सदाचार-विहीन, शील का अतिक्रमण द्रष्ट.. करने वाला - लासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - ... अच्चसरा/अच्चसा/अच्चसारि अति + /सर का अद्य., अच्चन्तसीलासु असञ्जतासु, जा. अट्ट. 5.445; प्र. पु., ए. व., बहुत तेजी के साथ आगे को बढ़ा, अतिसरति अच्चन्तसीलासूति अतिक्कन्तसीलासु, जा. अट्ठ. 5.447; - के अन्त. द्रष्ट.. सुख नपुं. [अत्यन्तसुख], अत्यधिक सुख- न पापजनसंसेवी अच्चहासि द्रष्ट. अतिहरति के अन्त.. अच्चन्तसुखमेधति, जा. अट्ठ. 1.466; अच्चन्तसुखं एकन्तसुखं अच्चादर पु., कर्म. स. [अत्यादर], अत्यधिक सम्मानभाव, निरन्तरसुखं नाम न एधति, तदे; - सुखुमाल त्रि., अच्छी देखभाल - रेन तृ. वि., ए. व. - भगवतो ब्रह्मसमत्तं अत्यन्त सुकोमल - लो पु., प्र. वि., ए. व. - त्वं खोसि, आरब्भ अच्चादरेन सपथं करोति, सु. नि. अट्ठ. 2.130. महाराज, खत्तियसुखुमालो, मि. प. 23; - सुञता स्त्री., अच्चाधाय अति + आ +vधा का पू. का. कृ. [अत्याधाय], परम या चरम शून्यता - मग्गेन विपस्सनं निवत्तेत्वा अनपब्बेन एक के ऊपर दूसरे को रखकर, एक पर एक रूप में अच्चन्तसुञता नाम दस्सिता होति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) विन्यस्तकर, थोड़े से तिरछे रूप में ऊपर की ओर चढ़ा कर 3.113; - सुद्धि स्त्री., [अत्यन्तशुद्धि]. पूर्ण विशुद्धि - ... - अथ खो भगवा ... दक्खिणेन परसेन सीहसेय्यं कप्पेति अच्चन्तसुद्धीति न ते वदन्ति, सु. नि. 800; - सेट्ठ त्रि., पादे पादं अच्चाधाय ..., स. नि. 1(1).32; अच्चाधायाति [अत्यन्तश्रेष्ठ], सबसे श्रेष्ठ, उत्तम - हाय स्त्री., च. वि., अतिआधाय, ईसकं अतिक्कम्म ठपेत्वा, स. नि. अट्ठ. ए. व.- अथो अच्चन्तसेट्ठाय परत्थपटिपत्तिया, सद्धम्मो. 293; 1.71-72; दी. नि. 2.102; दी. नि. अट्ठ. 2.149. - ताधम्मबहुल त्रि., अधार्मिक कार्यों में अत्यधिक लिप्त - अच्चाभिक्खणं अ., क्रि. वि. [अत्यभीक्ष्णं], बहुधा, प्रायः, स.
अच्चन्ता-धम्मबहुले मुनिन्दसुतवज्जिते .... सद्धम्मो. 11. पू. प. के रूप में ही प्रयुक्त; - संसग्ग पु. [अत्यभीक्ष्णसंसर्ग]. अच्चय पु.. [अत्यय], शा. अ. (समय का) निकल जाना, प्रायः होने वाला मिलन या संसर्ग - ग्गा प. वि., ए. व. - बीत जाना- येन तृ. वि., ए. व. तस्सा रत्तिया अच्चयेन, अच्चाभिक्खणसंसग्गा, असमोसरणेन च जा. अट्ठ. 5.221; सु. नि. (पृ.) 169; अथ खो आयस्मा नागसेनो तस्सा रत्तिया अच्चाभिक्खणसंसग्गाति अतिविय अभिण्हसं- सग्गेन, जा. अच्चयेन .... मि. प. 100; - ये सप्त. वि., ए. व. - अट्ठ. 5.222. अहोरत्तानमच्चये, स. नि. 1(1).35; ला. अ. 1. मृत्यु, अन्त, अच्चायत त्रि., [अत्यायत], अत्यधिक फैला हुआ, मरण, देहान्त - मरणं कालकिरिया पलयो मच्चु चाच्चयो. अतिशय खिंचा हुआ या तना हुआ - ता स्त्री.. प्र. वि., ब.
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